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Beghar Aurtein

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2016
978-93-85450-42-6

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सुनीता जैन एक अनेकान्त–प्रज्ञा की कवयित्री हैं । उनमें शब्द का वह स्याद आकार लेता है जिसे महादेवी की कविता में रहस्य या छाया की तरह देखा गया, शमशेर और मुक्तिबोध में बिम्ब की तरह खोजा गया और अज्ञेय एवं कुंअर नारायण में सांस्कृतिक मनीषा की तरह अन्वेषित किया गया । अंग्रेजी की एक प्राध्यापक अंग्रेज़ी से कितनी नि%सम्पृक्त और हिन्दी में कितनी डूबी हुई । कृति की भाषा में इतना गहरा निमज्जन कृतिकार के अन्दर का वह भाषाराग है, जो कविता बन कर स्पन्दित और ध्वनित होता है । सुनीता की कविताएँ प्रतीकों या बिम्बों की कारीगरी नहीं करतीं, बल्कि वे तो दृश्य और अदृश्य दोनों में झाँक कर उन्हें उनके जैसा ही प्रकट कर देती हैं । सुनीता ‘नदी, नदी में’ स्मृति तो रचती हैं, स्मृति में मौजूद सन्दर्भ भी खड़ा करती हैं, लेकिन उसके अन्दर इतिहास खड़ा न करके एक प्रकार का शून्य रच देती हैं, और यह शून्य कविता से भरा जाता है, व्यक्ति या चरित्र से नहीं ।

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