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Bhikhari Thakur aur Lokdharmita

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2019
978-93-89191-24-0

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हिन्दू समाज के वास्तविक चित्र को सामने रखकर उन्होंने उसकी बड़ी आलोचना की, सुधार के प्रयत्न किये तथा अपनी भाषा में उपाय भी बतलाए । कहने का तात्पर्य है कि समाज के कदम में कदम मिलाकर चलना उनके लिए कठिन हो गया । अनमेल विवाह के कारण ही युवती विधवा बन जाती थी । तत्कालीन परिवेश की इस समस्या पर हिन्दी साहित्य की दृष्टि भी बड़े पैमाने पर गई । विधवाओंे के प्रति सम्वेदना खूब जतायी जा रही थी । परन्तु हिन्दी क्षेत्र में जमीनी स्तर पर कोई सामाजिक आन्दोलन लगभग न के बराबर था । लेकिन वहीं भोजपुरी क्षेत्र में सांस्कृतिक स्तर पर भिखारी ठाकुर विधवाओं की पीड़ा पर ‘विधवा–विलाप’ नाटक के माध्यम से मरहम लगा रहे थे और समाज की उस कोढ़ी अंग पर चोट कर रहे थे, जो उन नारियों को नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त कर रहा था । उन्होंने देखा कि प्रेम और सच्चाई से विधवा की सेवा विरले ही व्यक्ति करता है । उनके शब्दों में विधवाएँ आसमान से नीचे नहीं आती हैं वरन् उन्हेंं समाज बनाता है । इसके पीछे तत्कालीन समाज में होने वाला बेमेल विवाह था । ‘दादा लेखा खोजलऽ दुलहवा हो बाबूजी’ लिखकर भिखारी ठाकुर ने समस्त जनता का ध्यान आकृष्ट करते हुए अनुकूल उम्र में शादी करने की सलाह दी लेकिन इन सब समस्याओं की जड़ में आर्थिक चिन्ता था । यह आर्थिक चिन्ता भिखारी युगीन परिवेश में अचानक पैदा नहीं हुई, वरन् इसके पीछे ऐतिहासिक परिस्थितियाँ जिम्मेदार थीं । जब भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्तीय पूँजीवाद का आगमन हुआ, तब उसने भारतीय कुटीर उद्योगों को धीरे–धीरे उखाड़ना शुरू किया और भिखारी ठाकुर के समय तक पूरी तरह से कुटीर उद्योगों को जड़ से उखाड़ फेंका ।

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