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Dr. Krishn Bihari Mishra Ke Nibandho Mein Lokjeevan
डॉ कृष्णबिहारी मिश्र गँवई–संवेदना के लोक–ख्यात सर्जक हैं । विरल कोटि के दुर्लभतम निबंधकार हैं । –षि–सत्ता को सम्हालने वाले चैतन्य–पुरूष हैं । भारतीय लोक–संस्कृति के अक्षयवट हैं । गाँव से उन्होंने जो धनात्मक संस्कार पाये हैं ( उनका कृति–कर्म उसी लोकरण को पाई–पाई कर चुकाने का अनुष्ठान करती है । व्यक्तित्व की गरिमा और जीवन की सादगी को वे ,क बार जीवन में रम्य छंद बनाकर जीते हैं तो दूसरी बार अपनी कृति–काया में । वे लोक–चेता हैं । लोक के सजग–सचेतन पहरूआ हैं । अपसंस्कृति की धूमैली झाग–जो तरुण पीढ़ी तथा भारतीय विजातीय मन को दिशाहारा बना रही है को रोकने–टोकने के लि, बंगाल की खाड़ी के नजदीक धुनी रमाये बैठे हैं । अपसंस्कृति की लहराती झागों ने बार–बार उन्हें आमंत्र–ा दिया( जमाने की झागों में बह जाने को लेकिन उनका लोक–संसक्त मन( हिमनग–सा अटल रहा । अविचल रहा । और लोक–तृ–ा तथा लोक–संवेदना को वे चुपके–चुपके चुनते–बिनते–बटोरते रहे । जमाने की हवाओं ने इसी बीच कई सतेज करवटें लीं, लेकिन अपने वैचारिक उसूलों से वे तनिक भी न हिले ( न डुले । दुनिया अपनी रफ्तार में बहती गयी, जातीय–स्मृति के वैदुष्य–दीप लोकमानस में वे जलाते चलते रहे । लोक–संस्कृति के चूल्हे को चेताते रहे । अपसंस्कृति के घने कुहरे को अपने रचना–कर्म–धर्म से चीरते रहे । और आज भी चीरते जा रहे हैं । उनके रचना–कर्म को यही काम्य है । कृष्णबिहारी मिश्रजी अतिशय संवदेनशील और अपनी बात को बिना लाग–लपेट के दो टूक कहने वाले ग्राम्य मनस्विता के स्पष्टवादी निबंधकार हैं । संवेदनशीलता और स्पष्टवादिता उनके व्यक्तित्व की उजली खासियत है जो उन्हें अपने समानधर्मा रचनाकारों के बीच विशिष्ट पीढ़ा प्रदान कराती है । ग्राम्य–चेतना के वे अप्रतिम चिंतक हैं । –इसी पुस्तक से
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