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Ek Tarah Ki Kala Ke Virudh Tatha Anya Nibandh

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2017
978-93-85450-37-2

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रघुवीर सहाय की मृत्यु सामाजिक और साहित्यिक दुर्घटना है । उन्होंने अभी अपना काम खत्म नहीं किया था । वे थके भी नहीं थे । उनके विचारों और रचनाओं में कहीं भी शिथिलता नहीं आने पाई थी । वे उन भाग्यशाली चिन्तकों और रचनाकारों में नहीं थेµहोना भी नहीं चाहते थेµजो ‘स्वतन्त्रता’ और ‘अद्वितीयता’ को मनुष्य की चरम नियति मानकर, रचना को जीवन के समानान्तर विकल्प के रूप में प्रस्तावित करते हैं । उनके लिए व्यक्ति जो समाज में रहता है, और रचनाकार जो अकेलेपन में रचता हैµउनमें भेद का महत्त्व नहीं है, सम्बन्ध का महत्त्व है । व्यक्ति और समाज, रचनाकार का विषय हो सकता है, वस्तु नहीं । वस्तु तो सम्बन्ध है । इसी कारण रघुवीर सहाय की निगाह मेंµ‘व्यक्ति समाज से स्वतन्त्र नहीं, समाज में स्वतन्त्र है’µअज्ञेय, जैसी युक्तियों का कोई अर्थ नहीं है । स्वतन्त्रता यदि मूल्यवान है तो वह व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध की वह धुरी है, जहां से अधिकतम गति और अधिकतम ऊर्जा उभरती है । राजनीतिक उथल–पुथल, सामाजिक परिवर्तन, असुरक्षा, डर और अवसाद के साथ हमारे समय का आदमी कितनी तरह से उलझा हुआ है, कितना विवश, कितना सक्रिय और कितना अकेला हैµउसे ठीक–ठीक पाने की काव्यात्मक कोशिश वे बराबर करते रहे । उन्होंने असंदिग्ध रूप से ‘व्यक्ति स्वातन्त्र्य’ की रियायत अस्वीकार की थी, साथ ही ‘मैं अपने लिए भी बहुत जरूरी हूँ’,µकी ‘जिद’ कभी नहीं छोड़ी । राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष को उन्होंने मानवीय ऊर्जा के लिए अनिवार्य माना और कला–परम्परा, भाषा और शिल्प को इतनी गरिमा दी कि वह किसी के मातहत न हो सके ।

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