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Gungunati Dhoop Ka Ek Katra

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2017
978-93-82821-09-0

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अब औरत खिड़की से झाँकेगी नहीं उसे पूरा खोल देगी दरवाजों को खुला छोड़ आ जाएगी बाहर । वह निहारेगी ही नहीं सूरज, बादल, आकाश । सूरज तापेगी बादल निचोड़ेगी आकाश नापेगी । मात्र महसूसना छोड़ पालेगी इन्हें अपने में भोगेगी दिन में भी केवल सपने में ही नहीं––– उसकी तलाश हो गयी हैं पूरी अब खिड़की के बाहर कतारबद्ध खिले हैं फूल ही फूल––– इसी पुस्तक से–––

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