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Hindi Gadh ki Parmpara Aur Paridrshye
यह पुस्तक यदि आने वाली पीढ़ियों को हिन्दी गद्य की परम्परा व वैविध्य को समझने में योगदान कर सकी तो मैं अपने परिश्रम को सार्थक समझूँगा । मुझे अपने गुरुजनों का स्नेह व अमूल्य मार्गदर्शन मिलता रहा है, जिसके लिए मैं उनका आजीवन कृतज्ञ रहूँगाय लेकिन फिर भी ‘क्या गुरु लै संतोषिए हौंस रही मनमाँही’ । यदि यह पुस्तक आज आपके हाथों तक पहुँच पायी है तो इसमें मेरे श्रद्धेय सीनियर्स, सहपाठी शैलेन्द्र्र, असीम, विकास, रवि, फरहान तथा स्नेहपात्र अनुज अनुराग, देवेन्द्र, जावेद व सारांश के कारण ही । इसके साथ ही अतुल माहेश्वरी जी का आभारी हूँ जिनके कारण ही मेरा यह संकलन पुस्तक रूप में आ सका है और भविष्य में भी उनके सहयोग का आकांक्षी हूँ ।
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