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Hindi Kavita Mein Stri Swar
हमारे अतीत के सारे पन्नों पर एक अशरीरी भूत बैठा है जो साहित्य, शास्त्र और इतिहास के धुंधलके में बैठा हर आने जाने वालों को दबोच लेता है, किंतु जब कभी ऐसी जगह कोई बुद्ध, कबीर या कोई अन्य सन्त लोक चेतना का ज्योतिवाह बनकर उठ खड़ा हो जाता हैµसारे भूत (अतीत) भभूत में बदल जाते हैं । अपनी शास्त्रीयता के अहंकार में यह भूत बहुत सारी दस्तकों पर कुंडली मारे बैठा है । हमारे पारम्परिक इतिहास लेखन में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसके लिए दलित और स्त्रियां गौरवान्वित और आशान्वित हो सकें । इस जड़ता को उखाड़ फेंकने के लिए हस्तक्षेप बनकर एक नहीं अनेक स्त्री विमर्श के बीच डॉ– सुनीता की उपस्थिति इतिहास के उस ‘दुर्ग–द्वार’ पर अपनी ‘दस्तक’ दे रही है । हमारे यहां जो श्रेण्य या शास्त्रीयताबद्ध रूढियों होती हैं, उसी को लोकमंगल से जोड़ दिया जाता है, लेकिन उस जाग्रत चेतना का क्या होगा जो लोकायत्त से गृहित है । कहने की आवश्यकता नहीं कि लोकायत्त की चेतना हमेशा से हाशिये की शिकार रही है । लोक की लय में स्त्री चेतना भी मुखरित होती रही है, कहीं–कहीं उसके गीतों में नि%शब्दता ही अर्थ की अनुगूंजें पैदा करती है । इस क्षेत्र में विशेष रूप से काम की आवश्यकता है । डॉ– सुनीता की इस किताब में लोकायत्त सुरों की अनुगंूज भी सुनायी देती है । लोकायत से आयत्त स्त्री–स्वर का विस्तार स्त्री चेतना के बंद द्वार को सिरे से खोल सकता है - ऐसी संभावना इस
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