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Ityadi

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2012
978-93-81997-15-4

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आप पूछेंगे कि इससे भाषा या हिन्दी का क्या लेना देना है ? जो कुछ इस देश में हो रहा है । मंहगाई, भ्रष्टाचार से लेकर नक्सल–समस्या जैसे अनेक मामलों से लोग जूझ रहे हैं, परेशान और बदहाल हैं । पूरा देश जैसे मृत्यु उपत्यका बना हुआ है । नेतृत्व उदासीन और कमजोर है । जनता के पास सवाल ही सवाल हैं पर जवाब नदारद हैं । लोग शोषित हो रहे हैं । उसके खिलाफ संघर्ष भी कर रहे हैं । पर टुकड़ों में । संघर्ष है पर खंडित । आदिवासी जानना चाहता है कि लोग उसके जंगलो और पहाड़ों के पीछे क्यों पड़े हैं ? धन की अदम्य लालसा की पूर्ति के लिए जरूरी है अनवरत उपभोग और उसके लिए चाहिए लगातार उत्पादन और फिर उसके लिए चहिए कच्चे माल की निर्बाध आपूर्ति, बेचारा आदिवासी इसे क्या समझे । किसान जानना चाहता है कि आत्म–हत्या करने के हालात क्यों और किसने बनाये । उसे क्या पता कि उसकी उपजाऊ जमीन पर बने सेज से यह देश कितनी तरक्की करने वाला है ? लोग जानना चाहते हैं कि वे अपने घर या बाहर सुरक्षित क्यों नहीं हैं ? वे जानना चाहते हैं कि उनकी चुनी हुई सरकार टाटा का साथ क्यों देती है ? भोपाल नरसंहार के मुख्य आरोपी को कौन और क्यों बाइज्जत जाने देता है ? जनता के पास जितने दु:ख हैं उससे ज्यादा सवाल हैं । जवाब की अब वह आस भी छोड़ रही है । वह हताश है । यदि हताशा भयानक नहीं होती तो कोई किसान आत्महत्या नहीं करता । एक सिपाही अपने ही अधिकारी को गोली नहीं मार रहा होता और भोले भाले आदिवासी सिपाहियों के गले नहीं रेत रहे होते । तो अपने और अपनों के हक के लिए, एक दूसरे के सुख– दु:ख से जुड़ने के लिए, संघर्ष को बड़ा, व्यापक और धारदार बनाने के लिए, मिलकर एक साथ जुड़ने के लिए चाहिए होती है एक भाषा । इस बार भी वह हिन्दी ही है । -इसी पुस्तक से

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