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Ka Ghar Ka Pardes
प्रवासी मनुष्य हो सकता है, साहित्य नहीं । क्यूँ कि सीमाएं मानव जीवन की होती हैं । सरहदें स्वयं मनुष्य ने अपने अहंकार और महत्त्वाकांक्षाओं की ज़मीन पर उकेरी हैं । जैसे–जैसे हम ‘सभ्य’ हो रहे हैं ये मानव निर्मित सरहदों की लकीर और गहरी और गाढ़ी हो रही है । लेकिन एक सत्य ये भी तो है कि मनुष्य अपनी इन सीमाओं में रह बसकर भले ही अपनी भाषा, इमारतें, सरकारें, संविधान या संस्कृति गढ़ ले, लेकिन उनकी प्रकृति प्रदत्त भावाभिव्यक्ति को वो इन सरहदों में नहीं समेट सकता । पीड़ा, दुख, खुशी, संताप आदि भावों संवेदनाओं का असर और तासीर उसकी देह मन पर वही होगी जो सार्वभौमिक संचेतना और महसूमियत है । आई एस आई आज सीरिया या ईरान या किसी भी अन्य देश में कहर ढाता है तो अमेरिका, जापान से लेकर एशियाई मुल्क तक फिक्रमंद और दुखी होते हैं । हिरोशिमा नागासाकी को बरसों पहले तबाह किया गया था, लेकिन उसकी वो दुखद यादें आज भी पूरे विश्व को सिहरा देती हैं । संवेदना, करुणा, सुख, दुख, ईर्ष्या आदि भाव एक सार्वभौमिक सत्य है । तो फिर साहित्य को किन्हीं बंधनों में क्यूँ जकड़ना या समेटा जाना उचित है ?यद्यपि किसी भी लेखक के लिए उसका पहला सरोकार संपर्क और फिक्र उसका अपना देश, अपना समाज, परिवार और उनकी स्थितियाँ व घटनाएँ ही होती हैं और कुछ हद तक होनी भी चाहिए, लेकिन यदि बात सार्वभौमिकता के पक्ष में की जाये तो यह एक विस्तृत वितान रचने और सम्पूर्ण विश्व की भावाभिव्यक्ति के कुछ साक्ष्य, वहाँ के रहन सहन, आचार विचार, समस्याओं व खूबियों और संस्कृतियों का लेखा जोखा भी है जिसमें एक टटकापन और ज्ञान अर्जन मुख्य औचित्य के रूप में उभरा है । हर देश में रिश्ते एक से होते हैं भाई, बहन, माँ पिता, दोस्त, दुश्मन इत्यादि बस सम्बोधन अलग–अलग होते हैं ।
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