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Kabir Granthawali
प्रस्तुत संकरण 'कबीर ग्रंथावली' में कबीरदास जी के जो दोहे और पद सम्मलित किये गये हैं, उन्हें आजकल की प्रचलित परिपाटी के अनुसार खराद पर चढ़ाकर सुडोल, सुन्दर और पिंगल के नियमों से शुद्ध बनाने का कोई उद्योग नहीं किया गया वरन उद्देश्य यही रहा है कि हस्तलिखित प्रतियों या ग्रंथ्सहब में जो पाठ मिलता है, वही ज्यों-का-त्यों प्रकाशित कर दिया जाय ! कबीरदास जी के पूर्व के किसी भक्त की वाणी नहीं मिलती ! हिंदी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल की समाप्ति पर मध्यकाल का आरम्भ कबीरदास जी से होता है, अतएव इस काल के वे आदिकवि हैं ! उस समय भाषा का रूप परिमार्जित और संस्कृत नहीं हुआ था ! कबीरदास जी स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे ! उन्होंने जो कुछ कहा है, वह अपनी प्रतिभा तथा भावुकता के वशीभूत होकर कहा है ! उनमें कवित्व पटना नहीं था जितनी भक्ति और भावुकता थी ! उनकी अटपट वाणी ह्रदय में चुभनेवाली है ! अतएव उसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर देना ही उचित जान पड़ा और यही किया भी गया है, आशा है पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों तथा पाठकों का मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होगी !.
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