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Kala Varta: Kalakaron Ke Sakshatkar Aur Kala Samiksha

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2019
978-93-89191-23-3

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चित्र देखना, चित्र का आनंद लेना, उससे संबंध स्थापित करना एक सहज, सरस प्रव्रि़या है, जहां सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त, खुद को खुला रखना होता है । मुझे हैरानी होती है, तरस आता है उन लोगों पर, जो किसी चित्र–प्रदर्शनी में पहुंच कर बिना चित्र को देखे ही यह जुुमला उछाल देते हैं–‘‘हमें चित्र समझ नहीं आता ।’’ या फिर चित्रकार से कहते हैं–‘‘यार, हमें समझाओ । चित्रकला में मेरी कोई गति नहीं है ।’’ उन्हें समझाना मुश्किल है कि चित्र को समझने की नहीं, खुले मन से देखने और अनुभव करने की दरकार है । फिर ऐसे तथाकथित कला रसिकों की भी कोई कमी नहीं, जो चित्र देखते नहीं बल्कि ‘देखने का अभिनय’ करते हैं । इस चाक्षुष निरक्षरता, चित्र को समझने, देखने के ढकोसले की विडंबना पर किंवदंती बन चुके चित्रकार, कला चिंतक जे– स्वामीनाथन से जुड़े एक प्रसंग को याद करना प्रासंगिक होगा । स्वामीनाथन तब भारत भवन, भोपाल के ‘रूपंकर’ संग्रहालय के निदेशक थे । तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह भारत भवन देखने आए । उनके साथ मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल और अन्य अधिकारीगण भी थे । ज्ञानी जैल सिंह ‘रूपंकर’ संग्रहालय में चित्रों को देखते हुए कुछ–न–कुछ टिप्पणी करते जा रहे थे । मूर्धन्य चित्रकार अम्बा दास के चित्र के सामने खड़े होते ही वे बोले–‘‘यह चित्र मेरी समझ में नहीं आया ।’’ राज्यपाल ने भी सहमति में सिर हिलाया । फिर जब वे स्वामीनाथन के ‘पेड़, पहाड़, चिड़िया’ श्रृंखला वाले चित्र के सामने आए तो कुछ प्रसन्न हो कर बोले–‘‘हां, यह चित्र मेरी समझ में आ रहा है । किसका है ?’’ स्वामी बोले–‘‘बनाया तो मैंने ही है पर यह मेरी समझ में नहीं आता!’’

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