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Kamayani : Ek Punarvichar
आज से कई वर्षों पहले, कामायनी के सम्बन्ध में, मेरे कुछ निबन्ध हंस तथा आलोचना में प्रकाशित हुए थे । उन्हीं के आधार पर, मेरे मन्तव्यों के सम्बन्ध में रायें बनाई गईं । यह स्वाभाविक ही था । कामायनी के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से लिखने का मुझे मौका नहीं मिला था । सन् ‘50 के बाद, मैंने एक पुस्तक लिखी । वह पूर्ण रूप से छपी भी, किन्तु ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करनेवाले एक प्रकाशक महोदय की सज्जनता के फलस्वरूप, मुद्रित होकर भी पुस्तक प्रकाशित न हो सकी । इस घटना के कई वर्ष बाद, मैंने फिर से उसी पुस्तक को संशोधित किया, उसमें नए अध्याय जोड़े और कुछ पुराने मतों में परिवर्तन किया । अब यह पुस्तक कृपालु पाठकों के सम्मुख है । हिन्दी के एक यशस्वी तरुण नाटककार यदि डण्डा लेकर मेरे पीछे न पड़ते, तो यह पुस्तक शायद लिखी ही न जाती । आगे चलकर, हिन्दी के समाज–द्रष्टा गद्यकार और कहानी लेखक श्री हरिशंकर जी परसाई ने मुझे आगे ढकेलने का बीड़ा उठाया । इन दोनों मित्रों के प्रति आभार व्यक्त करना सिर्फ़ एक रस्मी बात है । इस रस्म को मैं पूरा कर रहा हूँ । सच तो यह है कि उनकी मुझ पर अकृत्रिम कृपा रही, स्नेह रहा । अन्त में मैं अपने प्रकाशक श्री शेषनारायण राय के प्रति कृतज्ञ हूँ कि जिन्होंने निजी दिलचस्पी लेकर पुस्तक प्रकाशित करने की जिम्मेदारी उठाई । आशा है कि ये मित्र इसी तरह कृपा बनाए रखेंगे ।
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