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Kavita Dabe Panv Aati Hai
प्रत्येक व्यक्ति अपने समीपस्थ व्यक्ति को धकियाकर आगे निकल ने की कोशिश में लगा हुआ है । आज भौतिकता के प्रति तीव्र आकर्षण के कारण व्यक्ति के आपसी संबंध यांत्रिक और संकटकालीन संबंध रह गये हैं । ,क रीढ़ हीन आदमी की व्यक्ति चेतना और समाज चेतना, भौतिक उपलब्धियों से चालित होने के कारण सामाजिक स्त्रोतों से प्राप्त होने वाले सुखों को सोख लेने की होड़ लगी हुई है । मैं, जब इन संकटों से जूझते आदमी की गहन व्यथा, उनकी विकल छटपटाहट और मर्मांतक पीड़ा को महसूस करता हूँ तो यह ,क तरह से परकाया प्रवेश होता है । तभी हम उसके दुखों और कष्टों की थांह ले पाते हैं पर उस को व्यक्त कर पाने में शब्द बड़े असमर्थ होते हैं । यहाँ आह से गान निकलने की संभावनाएँ समाप्त हो जाती हैं । ये आहें, सोने नहीं देतीं । कानों में गूंजती रहती हैं । शब्द तैरते रहते हैं । तभी कविता दबे पांव आती है । बगैर आहट किये, बगैर दस्तक दिये । उसकी अनुगूंज की तरंगें धीरे–धीरे थमने लगती हैं । जैसे कोई विमान अपने रनवे पर दौड़ते हुए थम रहा हो । कलम थम जाती है फिर उसमें कुछ भी अल्प विराम, पूर्ण विराम लगाने की गुंजाइश ही नहीं रहती । यह कविता का संसार गूंगे के मुँह में गुड़ जैसा है । जीवन केवल दुख की कथा नहीं है । हमारी सांस्कृतिक विरासत ने हमें अभावों के बीच हंसना सिखाया है । हमारा समाज कितना ही आधुनिकता का परिधान धारण कर लें पर सांस्कृतिक विरासत की प्राणवायु हमें अपने भारतीय बनाते रखती है । प्रकृति की कृपा है कि कोंपलें अभी उगती हैं । कलियों के सपने आंखों में बसते हैं । आदमी की जिजीविषा उसे जगाती हैं, उसे जिलाती है । नकारात्मक प्रवृत्तियों से मुक्ति कहां, पर भरोसे की भैंस अभी ग्यावन है । आशा की इस खबर से उसके जीवन में चैतन्यता है, उत्साह है । यही क्या कम है । इस बीच ‘‘कविता दबे पांव आती है’’ कविता संग्रह प्रस्तुत है जिसमें 65 कविताएँ हैं । जिनकी अनुभूति हमारे आसपास ही डोलती है ।
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