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Kavita Ka Uttar Path
असल में समकालीन कविता का इलाका उपनिवेशीय–नव–उपनिवेशीय समाज है । बात यह है कि उपनिवेशीय समाज के प्रति समकालीन कविता कौन–सा रुख अपनाती है ? क्या वह उसकी तारीफ करती है ? उसकी मानव विरोधी हरकतों के खिलाफ चुप्पी साधती है ? समकालीन कविताओं से गुजरने पर स्पष्ट हो जाएगा कि वह कभी भी उपनिवेशवादी– साम्राज्यवादी ताकतों की तरफदारी नहीं करती है । अपवाद तो ढूंढ़ सकते हैं, यानी कविताओं में निस्संगता, चुप्पी, तटस्थता देख सकते हैं । मुख्यधारा की कविता इतिहास, विचारधारा इत्यादि का निषेध नहीं करती है, वह भूमंडलीकरण जैसे सुन्दर एवं मुलायम शब्दों के पीछे की साजिश पर प्रहार करती है । प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ढंग से वह नई आर्थिक नीति के षड्यंत्र का पोल खोल देती है और वृद्ध पूंजीवाद की लीलाओं पर प्रकाश डालती है । समकालीन कविता इस अर्थ में प्रतिपक्ष की कविता है, उसकी संस्कृति प्रतिपक्षधर्मी है । मतलब यह है कि वह सत्ताकेंद्रों की मानव विरोधी हरकतों, साजिशों का विरोध करके मानवता पर बल देती है । मनुष्य तथा उसकी भावनाओं, संबंधों, आकांक्षाओं, स्वप्नों को ऊर्जा प्रदान करती है । साथ ही पूंजीवादी ताकतों की विकल्पहीनता के ढोंग को तोड़ देती है । अब भी वह कबीर–निराला–मुक्तिबोध की विरासत को अपनाकर मिलकर लड़ने की बात करती है और मानवता की विजय पर पूर्ण आस्था प्रकट करती है ।
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