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Kavita Ki Samjh

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2015
978-93-82821-94-6

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मुक्तिबोध की कविता को पढ़ते हुए प्राय: यह कल्पना मन में उभरी है कि––– वह किसी ऐसे प्रतिभाशाली फि’ल्मकार का काम है जो अपनी किसी महत्वाकांक्षी फि’ल्म को बनाते हुए गहरी मानसिक यातना के कारण विक्षिप्त हो गया है अथवा स्वर्गीय––– और बचे रह गए हैं उसकी फि’ल्म के हज़ारों शॉट्स, विज़ुअल्स, कुछ आधे–अधूरे नैरेटिव–ऑर्डर के साथ––– जिन्हें हमने संकलित कर शो–केस कर दिया है । कितना अच्छा होता कि वह हमारे समय में होते और क’लम की जगह कैमरे से कविता लिखते । तो क्या कह सकते हैं कि उन्होंने कैमरे की जगह कलम से कविता लिखी । शायद हां । शायद नहीं । मुक्तिबोध की कविता समूची आधुनिक कविता में एक ऐसी विरल उपस्थिति है जो न उनके समकाल से पूर्व किसी कवि में पायी जाती है, न उसके पश्चात । उन पर उपलब्ध अधिकांश आलोचना उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और उनकी अभावग्रस्त जिन्दगी के इर्द–गिर्द ही घूमती है । बहुत हुआ तो फैंटेसी के शिल्पगत जंजाल में उन्हें रिड्यूस कर छुट्टी पा ली जाती है ।––– नयी कविता के दौरान फैशन बने बिम्ब–विधन का जो समूचा विचार–विमर्श है, वह प्राय: स्थिर बिम्बों अथवा क्षण–चित्रों के विश्लेषण और रेखांकन की तरफ’ अ/िाक झुका हुआ लगता है । हिंदी कविता में ‘गतिशील बिम्ब’(मूविंग इमेज़) के सौन्दर्यशास्त्र पर आलोचना की दृष्टि लगभग उदास करने वाली है–––जबकि सिनेमा के क्षेत्र में सिनेमेटोग्राफी की समूची तकनीक ‘गतिशील बिम्ब’ के सौन्दर्यशास्त्र पर ही आधारित होती है और जो आज अपने विकास के चरम को छू रही है । ‘सिनेमेटिक इमेज’ की संकल्पना अपने सीमांतों को तोड़कर अनेक नयी परिभाषाएं गढ़ चुकी है । ‘सिनेमा ऑफ पोइट्री’ से लेकर ‘सिने–पोइट्री’ जैसे अनेक पद सिनेमा में कविता की ताक’त को प्रूव कर चुके हैं । फिर क्यों न कविता में भी सिनेमाई बिम्ब और दृश्य–कला के प्रभावों पर बात की जाए ।

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