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Khidki
मुझे बृज मोहन एक अजुबा लगते हैं । कल्पना कीजिये, एक 65–66 वर्षीय ‘नवोदित’ कथाकार की, (हालाँकि वह लम्बे अर्से से लिख रहे हैं, लेकिन साहित्याकाश में एक दीप्तिमान नक्षत्र की तरह उनका अभ्योदय हाल के वर्षों में हुआ है ।) जो कहानी ओढ़ता है, कहानी बिछाता है, कहानी सोचता है और कहानी जीता है । जुनून ऐसा कि आ/ाी रात को मेरे मोबाइल की घण्टी बजती है । उस पार से आवाज़ आती है, “दादा मैंने उस कहानी का वह अंश बदल दिया है––– ।” नवोदित, लेकिन पूर्ण परिपक्व, मौलिक और मानवीय करुणा उनकी कहानियों की विशेषाता है । आश्चर्य नहीं कि अल्प समय में ही उन्होंने कहानी–जगत में अपनी अलग पहिचान बनाई है और सभी स्तरीय पत्र–पत्रिकायें उन्हें ससम्मान छापती हैं । कोई भी कथाकार उनसे कमतर या बेहतर हो सकता है, पर उन जैसा नहीं । याद आता है 1967 में जब मैं नवोदित था, मैंने वाराणसी में नामवर जी से पूछा था कि अच्छा लिखने के लिये मैं कहाँ रहूँ, इलाहाबाद या अपने कस्बे में ? नामवर जी की सलाह थी– “अपने कस्बे में ।” बृज मोहन को यह स्थिति सहज प्राप्त है । साहित्यिक केन्द्रों के वादों, नारों और शोशेबाज़ी के प्रदूशण से दूर वह अपनी निर्मल चेतना से लिख रहे हैं और बेहतरीन लिख रहे हैं । ‘खिड़की’, ‘पत्रमैत्री’, ‘सहजीवन’ और ‘कोटरवाले कक्का’ उनकी यादगार कहानियाँ हैं । याद आता है, जब उन्होंने अपनी अप्रकाशित कहानी ‘खिड़की’ मुझे पढ़ने को दी तो मैंने चमकृत होकर उनसे पूछा था, “आपने चेखव को पढ़ा है ?” और भी चमकृत करते हुये उन्होंने कहा था, “नहीं ।” मैं छ: दशक से साहित्य में हूँ । मैंने ‘खिड़की’ जैसी कहानी हिन्दी में आज तक नहीं पढ़ी । किसी और ने पढ़ी हो तो मुझे बताये, चेखव को छोड़ कर–––अस्तु । – वल्लभ सिद्धार्थ
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