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Mithila Ke Sanskritik Aayam

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2016
978-81-90819-70-1

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पंकज चौधरी की यह पुस्तक वर्तमान परिदृश्य में कई कारणों से महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट है । पुस्तक में शोध–विषय का गम्भीर और तलस्पर्शी विवेचन तो हुआ ही है, हिन्दी के रचनात्मक–साहित्य में मिथिलांचल के समाज और संस्कृति के जो बहुरंगी चित्र, अतीत–वैभव की पृष्ठभूमि में उसकी वर्तमान विद्रूपताओं के और उनके बीच भी जीवन के ऊर्जस्वित और अविरल प्रवाह के उभरे हैं, उन्हें उनके पूरे वैवि/य और समग्रता में दृष्टिकोण की पूरी वस्तुभत्ता के साथ व्याख्यायित और विवेचित किया गया है । आर्थिक और औद्योगिक प्रगति के नाम पर, वैश्वीकरण की आड़ में, एकजुट हुई पूंजीवादी शक्तियाँ विश्व–वर्चस्व के अपने मंसूबों के तहत जिस तरह पर्यावरण के लिए घोर संकट बन गई हैं, उनका बाजार–तन्त्र जिस तरह कमजोर, पिछड़े हुए और विकासशील देशों के समाज में सुखभोगवाद की अपनी अपसंस्कृति का प्रसार करते हुए निहायत विषम हुई जीवन–स्थितियों के बीच उनकी परम्परागत सांस्कृतिक अस्मिता को विनष्ट कर रहा है, बड़े पैमाने पर भाषाओं, जनपदीय बोलियों के सदा–सदा के लिए विलुप्त हो जाने की और अन्तत: अंग्रेजी के विश्वव्यापी वर्चस्व की जो वास्तविकता सामने आ रही है, पुस्तक में इन सवालों और इस वास्तविकता से भी न केवल गहरी मानवीय चिन्ता के साथ रू–ब–रू हुआ गया है, उनकी गम्भीर छानबीन भी की गई है । यह पुस्तक हमारे समय के सांस्कृतिक संकट को उसके बड़े प्रसार में समेटने में सफल हुई है । पंकज चैधरी ने, बड़े मनोयोग से जिस तरह मैथिली के सन्दर्भ में भाषाई अस्मिता का मुद्दा उठाया है, हिन्दी और मैथिली तथा दूसरी जनपदीय बोलियों से हिन्दी के घनिष्ठ सम्बन्धों की विवेचना की है, विचार के वर्तमान परिदृश्य में उनकी किताब नितान्त पठनीय और जरूरी किताब के रूप में सामने आई है । मुझे पूरा विश्वास है कि प्रबुद्ध पाठक–समाज उनकी किताब को पूरी संजीदगी से पढ़ेगा और उसकी सराहना करेगा । वल्लभविद्यानगर, - शिव कुमार मिश्र दीपावली–2008

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