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Mukariyan

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2017
978-93-82553-67-0

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‘मुकरी’ हिन्दी का विरल प्रजातीय काव्य–रूप है । इस लिहाज से अमीर खुसरो, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और नागार्जुन के बाद कोई और बड़ा नाम जेहन में नहीं आता है । खुशी की बात है कि जिसतरह इनदिनों ‘दोहा’ का दौर लौट आया है, उसीतरह ‘मुकरी’ का भी । लेकिन, यह दौर हिन्दी की क्षेत्रीय भाषाओ–अंगिका, बज्जिका आदि में लौटा है । ‘मुकरी’ हिन्दी की अकर्मक क्रिया ‘मुकरना’ का सामान्य भूतकालिक रूप है । इसका अर्थ होता हैµ कहकर मुकर जाना, अपनी बात से पीछे हट जाना, नटना या नकार देना । इसीलिए, उर्दू में इसे ‘कहमुकरनी’ कहते हैं, जबकि भारतीय अलंकारशास्त्र में ‘अपह्नुति’ । व्याकरणिक दृष्टि से यह सामान्य भूतकालिक क्रिया–पद है, जबकि इसका शाब्दिक अर्थ होता हैµ बात से पीछे हट गई अथवा नकार दिया । चूँकि, यह दो अंतरंग सखियों के बीच का मामला है, इसलिए इसके लिए ‘मुकरी’ का प्रयोग होता है । यदि यह दो सखाओं के बीच की बात होती तो ‘मुकरा’ शब्द का प्रयोग हो रहा होता । आज की तिथि में यह स्त्री–पुरुष µ दोनों के द्वारा प्रयुक्त हो रहा है । किन्तु, रूढ़िवश ‘मुकरी’ शब्द ही प्रचलन में है । जो हो, साहित्यिक दृष्टि से यह हिन्दी के विशिष्ट लोकधर्मी काव्य–रूप का बोध कराने वाला संज्ञार्थक शब्द है । अधिकांश विद्वान ‘मुकरी’ को लोकप्रचलित पहेली का ही एक प्रकार मानते हैं । इसका कारण यह है कि चार चरणों वाले इस छन्द के प्रारंभिक तीन चरणों में ‘बूझो तो जानें’ वाली बात छिपी होती है, जबकि अंतिम चरण में इसके दो जवाब । इनमें से पहले जवाब से असहमति व्यक्त करते हुए दूसरे जवाब को सही ठहराया जाता है ।

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