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Neel Devi : Soch Aur Srajan

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2021
978-93-92380-07-5

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भारतेन्दु युग में सामाजिक एवं धार्मिक रूढ़ियाँ भी अपनी अति पर थीं । बालविवाह, बेमेल–विवाह, वृद्ध–विवाह, जैसी वैवाहिक रूढ़ियाँ मुँहबाए खड़ी थीं । नारी वर्ग उपेक्षित था । स्त्री–शिक्षा महज एक सपना थी और धार्मिक कर्म–काण्ड तो अनपढ़ से लेकर पढ़े लिखे समाज तक इस कदर छाए हुए थे कि विवेक की रोशनी वहाँ जाते हुए डरती थी । ऐसे में महर्षि दयानन्द सरस्वती के नेतृत्व में ‘आर्यसमाज’ का उदय हुआ । उसने न केवल सामाजिक क्षेत्रों में बसी हुई रूढ़ियों पर प्रहार किया, अपितु धार्मिक क्षेत्र में भी वह उतना ही अग्रणी रहा । यह आर्य समाज का ही श्रेय है कि स्वदेशी प्रचार को सम्मान मिला, सामाजिक रूढ़ियों की दीवारें चरमराने लगीं तथा उस समय के चिन्तक वर्ग में ब्राह्मण धर्म का कर्मकाण्ड एवं उससे उत्पन्न अंधविश्वास न केवल प्रश्नचिह्न बन गये, अपितु स्वस्थ सामाजिक–धार्मिक चिन्तन की दिशा मेें उसका विरोध भी किया जाने लगा । जहाँ उत्तर भारत में आर्यसमाज क्रान्तिकारी आन्दोलन कर रहा था, वहाँ बंगाल में संत रामकृष्ण परमहंस ने हिन्दू–दर्शन की विभिन्न धाराओं का समन्वय करके आडम्बरहीन राष्ट्रीय धर्म की स्थापना की, जिसका शंखनाद आगे चलकर उनके शिष्य विवेकानन्द ने न केवल भारत में ही किया बल्कि विदेशों में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी । भारतेन्दु युग की इस पीठिका से खूब प्रभावित हुआ और इस युग ने साहित्य एवं चिन्तन को नये उन्मेष के साथ प्रकट किया । भारतेन्दु न केवल उन सबमें अग्रणी थे बल्कि आने वाली पीढ़ी के प्रेरक भी थे । डॉ– रामविलास शर्मा के शब्दों में इसके दो कारण थेµएक तो यह कि उन्होंने देश और समाज की महान ऐतिहासिक आवश्यकता पहचानी और उसे पूरा किया । दूसरा यह कि उन्होंने जो कुछ किया, वह नि%स्वार्थ भाव से, देश और जनता के लिए, हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए, अपने अहंकार की तुष्टि के लिए नहीं, अपना वन्दन–अभिनन्दन कराने के लिए नहीं । शायद यही वजह थी कि स्वाभिमानी कवि निराला को 1950 में भारतेन्दु की जन्मशती उत्सव में भाषण करते हुए यह कहना पड़ा कि ‘मैं उनके दरबार का दरबान मात्र हूँ ।’ -रमेश गौतम

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