- New product
Nukkad Par Natyashastra
कल्पना करें आप, स्टेशन का रिक्शा पड़ाव या सड़क का कोई कोना जहाँ थोड़ी जगह हो और जहाँ सौ, दो सौ व्यक्ति एक साथ गोल बनाकर खड़े हो सकते हों और उस गोल के भीतर कोई नाटक अभिनीत हो रहा हो । न कोई रंगमंच, न वेश–भूषा, न मेक–अप, न प्रकाश व्यवस्था । किसी तरह की तैयारी के बिना सूरज के प्रकाश में नाटक अभिनीत हो रहा हो । आप चैंक सकते हैं । निश्चय ही, आप पूछ बैठेंगे कि यह हो क्या रहा है ? आपको उतर मिलेगाµ‘नुक्कड़ नाटक’ । ऐसी स्थिति में, स्वभावतया आपमें प्रतिक्रिया होगी । एक दीर्घकालीन ऐतिहासिक परम्परा के बीच नाटक ने जो अब तक एक साहित्यिक स्वरूप गढ़ा था वह क्या आज नष्ट–भ्रष्ट हो रहा है ? सम्भव है, आपको चिढ़ हो कि ‘शेक्सपियर रायल थियेटर हाउस’ या कि भरत मुनि का नाट्यशास्त्र क्या सड़कों पर धूल चाटने लगा ? नाटक अपने आत्मविनाश के पथ पर तो नहीं आया ? हो सकता है, उस समय ढाई हजार वर्ष पहले का एक दृश्य आँखों पर उतर आये । प्रथम ग्रीक अभिनेता थेसपिस एक टेबुल पर खड़ा है । उसके सामने है कोरस दल । कोरस दल का नेता थेसपिस की ओर मुड़ता है । उसकी थेसपिस से कुछ बातें होती हैं और उसी मुहूर्त नाटक का जन्म होता है । वही नाटक समय के साथ–साथ सामाजिक संरचना और मनुष्य सभ्यता के बदलाव विकास के साथ अनेक नियमों, शर्तों में बँधता–जुड़ता एक निर्दिष्ट रूप ग्रहण करता है ।–––और आज ढाई हजार वर्ष बाद वही नाटक अपने समस्त नियमों, शर्तों, स्वरूपगत विशिष्टताओं को तोड़ रहा है ? किसलिए ? क्यों ?
You might also like
No Reviews found.