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Pichhe Chuthte drashye
बिहार की स्त्री रचनात्मकता का एक जाना पहचाना नाम हैं डॉ सुनीता गुप्ता जिन्होंने स्त्री आलोचना में एक सार्थक उपस्थिति दर्ज की है । सुनीता सृष्टि के नाम से वे कहानियां भी लिखती और छपती रही हैं । बहुत पहले हंस में प्रकाशित उनकी कहानी ‘पुट्टू बड़ी हो गई है’ ने मेरा ध्यान खींचा था । बाद में वे इस क्षेत्र में प्राय: ओझल ही रहीं । बीच बीच में कुछ और पत्रिकाओं में भी उनकी कहानियां देखने को मिलीं । ‘पीछे छूटते दृश्य’ उनका पहला ही कहानी–संग्रह है जिसमें उनकी लगभग एक दर्जन से अधिक कहानियां शामिल हैं । इस संग्रह की कहानियों में कथा–लेखिका ने तेजी से पीछे छूटते और नई सदी के बदलते बहुल यथार्थ को देखा जा सकता है । इनमें जहां एक ओर अपने समय का बदलता हुआ नया यथार्थ और छूटे–बीते समय की स्मृतियां शामिल हैं, वहीं दूसरी ओर नई स्त्री–मन की अनुभूति व प्रतीति गहरे दर्ज है । सुनीता की कहानियों की यह ध्यानयोग्य विशिष्टता है कि उनमें नई स्त्री और नए पुरुष के मन की अनुभूति व अहसास गहराई से चित्रित है । उदाहरण के तौर पर ‘पुटटू बड़ी हो गयी है’ और ‘करिश्मा’ कहानियों को लिया जा सकता है, जो एक–दूसरे की ही पूरक और विस्तार हैं और लेखिका की प्रतिनिधि कहानियां हैं । जहां पहली कहानी में पितृसत्तात्मक समाज–परिवेश में एक स्त्री–शिशु के समय सेे पहले परिपक्व होने की परिस्थितिगत आत्म–मन: स्थिति चित्रित है, वही दूसरी कहानी में उसी समाज–परिवेश पृष्ठभूमि में कमजोर मानी जाने वाली स्त्री के सर्जनात्मक मातृत्व–शक्ति के करिश्मे को एक नए पुरुष–शिशु द्वारा अहसास व स्वीकार बखूबी वर्णित है । ये तो कहानियां उदाहरण मात्र हैं, इस तरह की कई और कहानियां भी हैं जिनमें स्त्री–मन की गहरी अनुभूति व प्रतीति अंकित है । इसे उनकी ‘प्रतीति’ कहानी में देखा जा सकता है । यह आज की स्त्री की गहरी अनुभूतिजन्य कहानी है जो अपने पुरुष संगी से मन का सच्चा साथ–सुख चाहती है, सिर्फ देह–सुख नहीं । वस्तुत: सुनीता की कहानियां नई स्त्री की ‘प्रतीति’ और उसके ‘करिश्मा’ के स्वीकार की कहानियां हैं । इस प्रकार की कहानियों में वे पितृसत्तात्मक मानस एवं उसकी परम्परित धारणा व मान्यता की पड़ताल एवं विवेचन करती चलती हैं । सुनीता स्त्री दृष्टि की आलोचक हैं, स्त्री मुद्दों पर वे प्रखर ढंग से लिखती रही हैं । पर उनकी कहानियों को स्त्री विमर्श के पारंपरिक ढांचे में नहीं बैठाया जा सकता । उनका स्त्री विमर्श आरोपित नहीं है बल्कि गहन विश्लेषण की मांग करता हैं । वे पितृसत्ता की उन बारीक तंतुओं पर उंगली रखती हैं जिनके आवरण में स्त्री व्यक्तित्व कुंठित होता आया है । किंतु यह उनकी कहानियों का एक पक्ष है । उनकी बहुत सी कहानियां हैं जो सीधे आज के यथार्थ से जुड़ती हैं । इनमें आज के यांत्रिक हो रहे समय की यंत्रणा को महसूस किया जा सकता है । बांस की तरह बढ़ती हुई यह पीढ़ी जमीन और प्रकृति से दूर होती जा रही है जिसकी खोखली प्रतिध्वनि को लेखिका ने बड़े ध्यान से सुना है । इस निरर्थकताबोध की आहट को उनके कई पात्रों में सुना जा सकता है । अपनी कई कहानियों में वे शिल्पगत प्रयोग भी करती चलती हैं । प्रसव का नितांत स्त्रीजनित अनुभव हो या मृत्यु का बोध, लेखिका ने बड़े कौशल से उसे साधा है । उनकी कई कहानियां फ़िल्म की गति से चलती हैं चाक्षुष बिम्बों का प्रत्यक्षीकरण कराती हुई । फिलहाल तो यशस्विनी कथा–लेखिका सुनीता को इस संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और साधुवाद है । निस्संदेह उनकी यह संवेदनात्मक कथा–कृति हमारी आधुनिक हिन्दी कहानी की संवेदना व शिल्प–जगत् को और अधिक बहुआयामी और समृद्ध बनाएगी ।
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