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Porvottar: Aadiwasi Sarjan Swar

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2018
978-93-87145-65-8

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अपने देश में ‘अनेकता’ की जो बात हम ज़माने से कहते–सुनते आए हैं, पूर्वोत्तर क्षेत्र उसका बेजोड़ उदाहरण है । पचासों जनजातियां और उनकी अपनी विशिष्ट संस्कृतियां इसकी गोद में किलकारियां भर रही हैं । अंगामी, रेंगमा, फोम, लोथा, सेमा, चांग, चिर कोन्याक, जालियाड–, चाखेसांग, थिंग चंगूर और ऐसी ही अन्य लगभग पचीस जनजातियां तो अकेले नागालैंड में ही हैं । इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश में आदी, मोनपा, खाम्ती, शेरदुकपेन और उनकी कई उपजनजातियां हैं । मणिपुर में भी ऐसी ही विविधता के दर्शन होते हैं: पैते, थादोह, वाइफ़े, हमार, ताड–खुल, कुकी आदि । अन्य राज्यों यथा असम, त्रिपुरा, सिक्किम में भी कई जनजातियों का संग–साथ है । इन सभी जनजातियों में अपने क़बीलों की उत्पत्ति, सृष्टि–रचना, सामाजिक आचार–व्यवहार आदि से जुड़ी स्मृतियां, मिथक और लोककथाओं और गीतों की एक समृद्ध परंपरा है । इनका एक बड़ा हिस्सा लिखित रूप में आ चुका है । बचे हुए भाग को भी लिपिबद्ध कर संरक्षित करने का प्रयास आदिवासी लेखक कर रहे हैं । पर इनसे अलग यह देखना भी बड़ा दिलचस्प है कि वर्तमान समय में पूर्वोत्तर का आदिवासी साहित्यकार क्या अनुभव करता है । अपने समय और परिवेश से वह किस तरह तादात्म्य स्थापित कर रहा है ? इस पुस्तक के लिए आधुनिक साहित्यिक विधाओं में पूर्वोत्तर के रचनाकारों की सामग्रियां इकट्ठा करने के सिलसिले में जब हमने विभिन्न स्रोतों को खंगालना शुरू किया तो यह बात सामने आई कि कुछ जनजातियों के यहां गणनात्मक और गुणात्मक दोनों दृष्टि से साहित्य–रचना ख़्ाूब हो रही है । हां, कुछ ऐसी भी जनजातियां भी हैं जिनके यहां आधुनिक साहित्य अपने शैशव काल में है । मणिपुर में ग़ैरआदिवासियों साहित्यकारों के यहां जैसी सक्रियता देखने को मिलती है वैसी पैते और अन्य जनजातियों में नहीं है । सिक्किम में भी लेप्चा लोगों की तुलना में नेपाली और भुटिया साहित्यकार आधुनिक साहित्य रचने में आगे हैं । लेप्चा लोगों के मन में संख्या–बल में नेपाली या भुटिया लोगों से पिछड़ जाने का कसैला अहसास है । उनके मुक़़ाबले बोरो, मिज़ो, कोकबोरोक और खासी जनजातियों में सांस्कृतिक–साहित्यिक गतिविधियां अधिक तेज़ हैं । कई रचनाकार तेज़ी से लिख रहे हैं और अपनी रचनाएं अंग्रेज़ी में प्रस्तुत कर अपनी भाषा से बाहर के पाठकों तक अपनी पहुंच बना रहे हैं । ---इसी पुस्तक की भूमिका से

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Reviews
मैंने वास्तव में पुस्तक के उन हिस्सों का आनंद लिया, जिन्होंने आदिवासी लोक कथाओं और किंवदंतियों को साझा किया। इन कहानियों ने मुझे पूर्वोत्तर के आदिवासी लोगों के विश्वासों और मूल्यों की गहरी समझ प्रदान की। कुल मिलाकर, यह पुस्तक उन लोगों के लिए जरूरी है जो पूर्वोत्तर भारत की संस्कृति और आदिवासी समुदायों के बारे में अधिक जानने में रुचि रखते हैं।
Narayan Kumar, Madhubani