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Porvottar Ka Aadiwasi Swar
विस्थापन का असर कई पीढ़ियों तक रहता है । उसका एक सामाजिक–सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है । वे अपने ही घर में परदेसी होने लगते हैं-यानी निज घरे परदेसी! जमीन और जंगल आदिवासी संस्कृति का आधार रहा है और आज भी है लेकिन विकास के नाम पर उनके जंगल और जमीन दोनों छिन गये । सच तो यह है कि भारतीय आदिवासियों को बाहर के हमलावरों या अंग्रेजों के उपनिवेशवाद ने तो नुकसान पहुंचाया ही लेकिन उससे भी ज्यादा नुकसान भारत की सरकार, नौकरशाही और भारत के मैदानी लोगों के उपनिवेशवाद ने पहुंचाया । सांस्कृतिक हस्तक्षेप के कारण दक्षिण में तो कुछ आदिम आदिवासी समूहों जैसे-टोडा, कोटा, बंजारा, लाम्बाड़ी आदि को छोड़कर बाकी प्राय% सभी आदिवासी समूह अपने–अपने प्रदेश की संस्कृति में समायोजित होते चले गये, खासकर भाषा के मामले में । मध्य और पश्चिमी भारत के मैदानी क्षेत्रों में जाकर बसने को मजबूर आदिवासी आबादी की संस्कृति तेजी से प्रभावित होने लगी, ये लोग बहुसंख्यक आबादी के धार्मिक और सांस्कृतिक कर्मों, आडम्बरों और रीति–रिवाज़ों को भी अपनाने लगे । जनजातीय क्षेत्रों में ईसाई धर्म में धर्मान्तरण हुआ लेकिन उसका सकारात्मक प्रभाव हुआ कि ये लोग शिक्षित हो गए । ईसाई धर्मान्तरण का कुछ नकारात्मक प्रभाव भी आदिवासी–संस्कृति पर पड़ा लेकिन उतना नहीं । जहां पलायन नहीं हुआ, वहां कमोवेश उनकी अपनी संस्कृति और भाषा बची रही । पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज ने व्यापक स्तर पर अपनी भाषा, बोली, संस्कृति, जीवनशैली बचाकर रखी है । इसका एक मुख्य कारण इस क्षेत्र के दुर्गम होने के चलते इस क्षेत्र में आर्य संस्कृति का प्रवेश न हो पाना या कम होना है । धर्म–परिवर्तन भी हुआ तो वहां की जनजाति समूहों ने अपनी संस्कृति, जीवनशैली या भाषा पर असर नहीं पड़ने दिया, उल्टे उनकी भाषाओं को ईसाई मिशनरियों ने लिपि देकर उन्हें शिक्षित करने का रास्ता अपनाया, जिससे वे लोग पढ़–लिख गए । उन्होंने कुछ नए तौर–तरीके या बाहरी अदब व सलीके भी सीख लिए, लेकिन अपनी विरासत को नहीं छोड़ा । उसमें कुछ जोड़कर उसे और समृद्ध बनाया । उनकी चेतना का स्तर भी बढ़ा है । नागालैण्ड हो, सिक्किम हो, अन्य पूर्वोत्तर के ये सभी राज्य अपनी–अपनी पहचान के प्रति संवेदनशील हैं । ---इसी पुस्तक से