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Prachin Bhartiya Parampara Aur Itihas
देवों में पहले यज्ञ आदिम साम्यवाद का प्रतीक था । मय की उपासना से बलि का प्रादुर्भाव हुआ था। उस समय सब कबीले गण गोत्री थे, मातृसत्तात्मक थे। वे जब पितृसत्तात्मक हुए यज्ञ धर्म बन गया और यहाँ पहले दान का अर्थ अग्नि के पुरोहित द्वारा सबको दिन की कमाई के बराबर बाँटना था, अब पुरोहित का आधिपत्य हो गया और दान का अर्थ 'दान' हो गया। यह देव विरस परिवार के लोग थे अर्थात् उस भाषा को बोलने वाले जिसमें से कालान्तर में अवेस्तन, फारसी, लैटिन, ग्रीक और वैदिक संस्कृत निकली। इन्द्र तक आते-आते अनेक वर्ष बीत गये। इनका एक दल पश्चिम चला गया और अपने साथ देवयुग की कहानियाँ ले गया जो ग्रीक्स में मिलती हैं । देवों की व्यवस्था भी असुरों से प्रभावित हुई । असुरों ने जब इन्हें हराया नहीं था तब इनका यहाँ के राक्षस देवता शिव से विरोध हुआ । परन्तु कुछ स्त्रियाँ लिंग-पूजा और योग की ओर आकर्षित हुईं। दक्ष-पुत्री सती आकर्षित हुई । देवों ने उसका अपमान किया। शैवों ने इन्हें हराया। तब शिव इतना व्यापक देवता न था, किसी कबीले समूह का देवता था अधिकांश राक्षसों का । राक्षसों ने कार्तिकेय के नेतृत्व में देवों की असुरों से रक्षा की। तब वे रक्ष अर्थात् रक्षा करने वाले कहलाये । इस समय दानव-दैत्य देवों के विरोध में रत थे । वे भी प्रह्लाद के समय में झुक गये। नृसिंह आदि की कथाएँ, सुमेरियन में भी मिलती हैं। हमारा आदि प्राचीन काल यहाँ आकर समाप्त हो जाता है जब प्रलय हुआ, देवयुग का अन्त एक भीषण प्रलय के साथ हुआ। जिसमें मनु का कबीला बच गया। वानर, ऋक्ष, यक्ष, राक्षस भी दक्षिण की ओर चल पड़े। रावण एक पद था। रावण आकर पहले सरस्वती तीर पर बसा । फिर उसे हैहयों ने दक्षिण भगाया। फिर वानर बालि ने ऋष्यमूक पर्वत से उसे नीचे ढकेला । उसने अन्त में जाकर लंका बसायी और व्यापार बढ़ा और लंका को सोने की कर दी। लंका का नर्मदा तीर की सभ्यता से सम्बन्ध था जहाँ माहिष्मती में कर्कोटक नाग बसे हुए थे जिन्हें बाद में हैहयों ने निकाला। –‘भूमिका' से
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