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Rajkamal Chaudhary : Chuni Hui Kahaniya
कहानी कला पर अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। बड़े-बड़े साहित्यसेवियों ने इस पर अपनी राय प्रकट की है। स्वातन्त्र्योत्तर काल की और सन् 1960 के पश्चात् की हिन्दी कहानियों पर पर्याप्त लिखा-पढ़ा गया है। स्वाधीन भारत के वीते वर्षों में हिन्दी कहानी ने कई करवटें लीं। समालोचकों ने इसकी नानाविध व्याख्या की। कुछ कहानीकारों ने भी स्वयम्भू राजनेता की तरह कहानी लेखन के मेनीफेस्टो समय-समव पर जारी किए। समय-समय पर उन कहानीकारों ने अपने 'दल' और अपने 'बल' भी बदले। अपनी प्रतिभा, अपनी सोच-समझ और अपनी कहानी-कला की उत्कृष्टता के सम्बन्ध में नारे भी लगाए, खेमेबाजी की... सब की। लेकिन राजकमल चौधरी ने इनमें से कुछ नहीं किया। उन्होंने केवल लिखा। कहानियाँ लिखीं, कविताएँ लिखीं निवन्ध-आलोचना-रूपक-रेखाचित्र-पत्र-संस्मरण-समीक्षा-रिपोर्ताज सब कुछ लिखा। साहित्यिक विवाद भी चलाए। गलत इरादों, गलत तरीकों और गलत रास्तों की तरफ उन्मुख साहित्य की भर्त्सना की खुलेआम और लिखित रूप से विरोध किया। और, श्रेष्ठ साहित्य की प्रशंसा की। शायद अपने दौर के गिने-चुने लेखकों में से राजकमल चौधरी हैं, जो अपना वजूद अपने समकालीनों की तरह डमरू बजाकर नहीं, अपने लेखन के बूते स्थापित करना चाहते थे और कर भी लिया। वर्ना उनके समकालीन मदारियों ने और उनके गवैयों-आलोचकों ने तो राजकमल को जाति-बाहर करने में कोई कसर छोड़ी ही नहीं थी।
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