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Sahitya Ka Naya Lok
कला–साहित्य का नया लोक इन प्रश्नों से जूझता हुआ कुल मिलाकर यह चाहता है कि ‘लोकप्रिय’ और ‘शास्त्रीय’, ‘गीत’ और ‘अगीत’, ‘प्रगति’ और ‘प्रयोग’ के बीच की छुआछूत मिट जाए । इसका एक बड़ा प्रमाण लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास की जारी की हुई डीवीडी शृंखला है जहाँ मुख्यधारा की बहुतेरी कालजयी कविताएँ बाँची गई हैं । पीछे झलकने वाले बिम्बों के आश्रय और इनके अपने टोनल वैविध्य के आश्रय भी ‘अँधेरे में’, ‘असाध्य वीणा’ आदि जटिल रचनाएँ भी पंखुड़ी–दर–पंखुड़ी खुलती चली जाएँ, इसका ध्यान रखा गया है । 80 लाख इसके दन्तचित्त श्रोता अभी तक बने जिनमें प्रमुख हैं-स्कूल–कॉलेज और कॉरपोरेट में नाम करते लड़के–लड़कियाँ, प्रवासी भारतीय और वे सभी बुजुर्ग जिनके कोर्स में ये कविताएँ तो थीं पर इनका सप्राण वाचन उपलब्ध नहीं था । साहित्य का नया लोक उत्सुक तो है । बड़ी रचनाओं की अनुगूँजें पकड़ने में नया मीडिया बड़ी भूमिका निभा सकता है । एनबीटी में काम करने वाले दिव्यांग श्री ललित द्वारा प्रणीत ‘कविता–कोष’ और स्वर्गीय मनोज पटेल द्वारा उत्कीर्ण ‘पढ़ते–पढ़ते’ अपने ढंग से अनूठे वेबसाइट हैं । फिलहाल व्यक्ति–विवेक और समूह–प्रज्ञा भंडारण और संरक्षण द्वारा नई पीढ़ी के भाषिक अवचेतन में कविता–कहानी की कुछ अनुगूँजें दर्ज हुई हैं । बाकी जो कोटि–निर्धारण (कैननाइजेशन) का महान कार्य है-वह समय खुद ही कर लेगा । किसी खास तरह की तमतमाहट में जारी की हुई मेधासूचियों का कोई अर्थ नहीं होता । हर साहित्य का इतिहास गवाह है, अपने समय में जारी सूचियों से कई बड़े साहित्य गायब थे, कई के खिलाफ लन्तरानियाँ भी छूटीं थी पर उनकी रचनाएँ अभी भी हमारे साथ हैं और उनके ऐसे कई मजाकिया प्रत्युत्तर भी-‘जो हमको बदनाम करे हैं, वे क्या इतना सोचे हैं। मेरा पर्दा खोले हैं कि अपना पर्दा खोले हैं’ (फिराक गोरखपुरी)! समय दूध का दूध , पानी का पानी कर ही लेता है । लोक का मन यह बखूबी समझता है । -इसी पुस्तक से
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