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Samkalin Sahitye Aur Mulye Vimarsh
ग्रंथकार की प्रस्तुत कृति विभिन्न विमर्शों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । यहाँ विमर्शकारों के दृष्टिकोणो कोउदघाटित करने के साथ ही जीवन के साथ उनकी संगति दिखाने का प्रयास किया गया है । इसके अंतर्गत आर्ष परंपरा से लेकर समकालीन परिवर्तन के आलोक में प्रकृति एवं पर्यावरणीय चिंतन तथा चिंता को उजागर किया गया है । समकालीन साहित्य के अगुआ कवि राजकमल चैधरी का समकालीनता बोध जितना सशक्त रहा है, उनका काव्यात्मक व्यक्तित्व और कृतित्व उतना ही विवादास्पद भी रहा है । हिंदी साहित्य में उनकी छवि का प्रचार जिस रूप में किया गया, वह अपने आप में अनोखा है । इसके उलट सच्चाई कुछ और है । इस संदर्भ को दुरुस्त करने का सराहनीय प्रयास किया गया है । इन सबके अतिरिक्त मानवाधिकार, स्त्री–विमर्श, दलित–विमर्श जैसी समकालीन प्रवृत्तियों को आलोकित करने वाले आलेखों के कारण यह रचना संग्रहणीय बन पड़ी है । वर्तमानयुगीन मूल्यहीनता को देखते हुए ‘मूल्य का आग्रह’ करने वाला यह संग्रह सार्थक भी है और ध्यानाकर्षक भी । यहाँ प्रयोग और व्यंग्य के साथ ही सहजता को संजोने की युक्ति को प्रश्रय देने के कारण साहित्य की संरक्षणशीलता और गतिशीलता का मणिकांचन संयोग देखने को मिलता है । कुल मिलाकर प्रस्तुत संकलन में रचनात्मकता और बौद्धिकता का संलयन है ।
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