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Sangram : Ek Prasangik Adhyayan
प्रेमचंद जी समाज जीवन से जुड़े हुए साहित्यकार हैं । उनके अनुसार जीवन की आलोचना ही साहित्य है । वे उपन्यास को व्यक्ति जीवन का चित्र मानते हैं । उनके अनुसार मदारी का खेल दिखानेवाले अन्य लोग ही होते हैं, साहित्यकार नहीं । साहित्यकार जीवन का चित्र बनाता है, जीवन की आलोचना प्रस्तुत करता है । प्रेमचंद जी की मान्यता है कि साहित्यकार अपनी जीवनानुभूति का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करते हुए समाज का नया निर्माण करने का प्रयास करता है । इस प्रकार समाज निर्माण में आवश्यक पहलुओं को ही साहित्य की प्रासंगिकता करार दी जाती है । स्वतंत्रतापूर्व सामंती समाज व्यवस्था में जीते हुए प्रेमचंद को जातिभेद प्रथा, विधवा विवाह, छुआछूत, ऊच–नीच, अंध–परंपरा, जमींदारी–गरीबी आदि से जूझना पड़ा था । प्रेमचंद की प्रासंगिकता प्रत्येक काल के लिए महत्वपूर्ण है । क्योंकि उन्होंने भारतीय समाज के सभी प्रकार की जड़ताओं, अंधविश्वासों, बंधनों, दासत्व के कारणों से मुक्ति का निदान खोजते हुए आदर्श की स्थापना की है । कलम के सिपाही के रूप में प्रेमचंद जी के साहित्य का सबसे प्रधान उद्देश्य है स्वराज की प्राप्ति । यह मुक्ति का संघर्ष केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि सभी समाज के लिए प्रासंगिक है । इसमें मजदूरों की मुक्ति, नारी की मुक्ति, दलितों की मुक्ति, शोषितों की मुक्ति निहित है । प्रेमचंद का साहित्य आजादी की लड़ाई के केवल राजनीतिक परिवर्तन तक नहीं बल्कि साधारण जनता के आर्थ–सामाजिक प्रगति से भी सम्पृक्त था । सामंती समाज की पूँजीवादी शोषण, उत्पीड़न से किसान, दलित और स्त्री को मुक्त कराना ही प्रेमचंद साहित्य की प्रासंगिकता है । साथ ही साथ धार्मिक शोषण से भारतीय समाज को मुक्त कराते हुए हिन्दू–मुस्लिम की सहावस्थान करने की चेतना की श्रीवृद्धि करना उनका लक्ष्य था । भारतीय किसानों की दयनीय दशा को लेकर सर्वत्र प्रेमचंद जी चिंतित दिखाई पड़ते हैं । दलित वर्ग के प्रति वे सर्वत्र संवेदनशील थे । स्त्री की सामाजिक अस्मिता के प्रति सर्वत्र वे जागरूक थे । इस प्रकार प्रेमचंद का साहित्य सार्वदेशिक, सार्वकालिक और प्रासंगिक है । साहित्य हमें मानवता की, समाज–संस्कृति की, जीवनानुभूति के संघर्ष–उपलब्धियों की, सत्यं शिवं सुन्दरम् की पहचान कराता है । साहित्य मानव की श्रेष्ठता प्रतिपन्न करता है । मानव को मानव बनाने का प्रयत्न करता है । प्रेमचंद का साहित्य सभी प्रकार की मानव जड़ताओं, अंधविश्वासों, बंधनों तथा दासत्व के कारणों से मुक्ति का आह्वान है । अर्वाचीन दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, नारी विमर्श, पुरुष विमर्श, किसान विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श आदि सभी विषय प्रेमचंद के साहित्य में मौजूद मिलते हैं । स्वतंत्रता, समानता, वर्गहीनता, उच्च–नीच की भेदहीनता तथा शोषणरहित समाज का निर्माण करना प्रेमचंद की साहित्य–दृष्टि है ।
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