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Sansmarno mein : Dr. Namvar Singh
मुझे याद है, वह मई 1960 की उमस–भरी प्रचंड गर्मी की कोई दुपहरिया थी । मैं अपने निकटवर्ती शहर हाजीपुर गया हुआ था । स्टेशन लौटते वक्त पास में ही सड़क के किनारे कन्धे पर झोला लटकाये और हाथ की उँगलियों में पत्रिका के कई अंक फँसाये चिल्लाए जा रहा था-छप गया–––छप गया-‘नई कहानियाँ’ छप गया/ छह–छह आने–––सैंतीस पैसा––– । उत्सुकतावश पत्रिका की एक प्रति लेकर मैं उलटने–पलटने लगा । ‘नयी कहानियाँ’ का यह प्रवेशांक (मई 1960) था जिसका सम्पादन भैरव प्रसाद गुप्त ने किया था । इसकी पहली कहानी थीµ‘बरसाने की राधा’ (नलिनविलोचन शर्मा) और डॉ– नामवर सिंह का कहानी पर स्तम्भ थाµ‘हाशिये पर’ । इतना मेरे लिये काफी था । मैंने पत्रिका खरीद ली । घर लौटने पर नवल भैया पत्रिका देखकर खूब खुश हुए और उसी दिन पटना लौटते वक्त पत्रिका का उक्त अंक अपने साथ ले गये । नलिनजी की कहानी पढ़ने की मेरी हार्दिक इच्छा थी, लेकिन अब पत्रिका मेरे हाथ में नहीं थी । दशकों बाद मुझे वह कहानी पढ़ने को मिली ‘साहित्य अमृत’ (सम्पादकµविद्यानिवास मिश्र) के किसी अंक में ‘प्रतिस्मृति’ स्तम्भ के अन्तर्गत । वह अब भी मेरी प्रिय कहानी है । नामवर जी को साक्षात देखने का अवसर मिला मुझे जुलाई 1962 में । उत्तरी बिहार में साल 1962 में आम की फसल जोरों पर थी । आलम यह था कि बनारस, इलाहाबाद, गोरखपुर, कलकत्ता के आढ़ती (आम के व्यापारी) लगातार टेलीग्राम भेज रहे थे आम न भेजने के लिए । और तो और भिखारी तक आम लेने से कतराता था । ऐसी स्थिति में मुझे बनारस भेजा गया घर के लोगों द्वारा आम का हिसाब लेने के लिए आढ़ती से । पहली बार अकेले बनारस जाने की मुझे ज्यादा खुशी थी । बिक्री का हिसाब तो बहाना था । 1962 की जुलाई के पहले सप्ताह में ट्रेन से मैं बनारस पहुँचा सुबह में । उसी दिन बनारस से प्रकाशित दैनिक ‘आज’ के ‘आज के कार्यक्रम’ में खबर छपी थी कि अपराह्न 4 या 5 बजे ‘तूलिका’ की गोष्ठी में डॉ– भगवत शरण उपाध्याय और डॉ– नामवर सिंह के व्याख्यान होंगे । नियत समय पर मैं ‘तूलिका’ की गोष्ठी में पहुँच गया । यहीं पहली बार मैंने नामवरजी के दर्शन किये । धोती–कुर्ता पहने लम्बे छरहरे 35 वर्षीय गेहुँए रंग के नामवर सिंह का तेजस्वी चेहरा, त्रिलोचन के शब्दों में ‘पुस्तक पढ़ी आँखें’, दमक रहा था । तब तक उनकी कई पुस्तकें-‘बक्लमखुद’ (1951), ‘अपभ्रंश–––’, ‘पृथ्वीराज रासो–––’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’, ‘छायावाद’, ‘इतिहास और आलोचना’ निकल चुकी थीं और साहित्य की दुनिया में वे खूब चर्चित हो रहे थे ।
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