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Sita Ki Khoj
क्या सीता किसी स्थान में बँधी हैं जिसे राजनीति ने किसी देश या प्रदेश की पहचान से कस कर जकड़ दिया है ? राजनीति भूगोल को छोटी–छोटी सीमाओं में बाँट कर प्रभुत्व का दम भर सकती है लेकिन सीता ने जन–मन में सब सीमाओं के ऊपर प्रेम और करुणा का जो भाव–सेतु बाँध दिया है उसे तोड़ना किसी राज्य और सेना के बूते में नहीं है । सीता किसी तिथि–बद्ध इतिहास का मुहताज नहीं हैं । वह किसी महल या मंदिर का भी मुहताज नहीं रहीं । वह भूमिपुत्री थीं । सूर्य चंद्र नक्षत्र मंडल के साथ, पहाड़ों नदियों झरनों के साथ, बादलों और हवाओं के साथ, पशुओं पक्षियों मनुष्यों के साथ चलती रहीं, बोलती–बतियाती रहीं, हँसती–गाती रहीं । वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक विश्वविख्यात महाकवियों ने और गाँव–गाँव घर–घर अनगिनत अज्ञात लोककवियों ने हजारों वर्षों तक अपनी वाणी से लाखों–लाख स्त्रियों और पुरुषों के हृदय में सीता की एक से एक मार्मिक भावमूर्तियाँ गढ़ी हैं । जन्म में, विवाह में, व्रत और त्यौहार में, सोहनी और रोपनी में, धनुष यज्ञ और राम लीला में, रामायण के पाठ और पारायण में, पूजन और कीर्तन में सीता की ये भावमूर्तियाँ फिर–फिर जीवंत हो उठती हैं । एक–एक काव्य, एक–एक नाटक, एक–एक गीत, एक–एक लीला, एक–एक कथाµउनका एक–एक पाठक, एक–एक श्रोता, एक–एक दर्शक, एक–एक गायक, एक–एक पूजक, एक–एक कथक सीता का एक–एक मंदिर है । वे मंदिर बिना शोर मचाये, बिना कोई नारा लगाये, चुपचाप बनते जाते हैं, उनमें इन भावमूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा होती जाती है । नए–नए युग में नए–नए मंदिर, नई–नई भावमूर्तियाँ । मेरे लिए तो बस यही सुगम है कि मैं सीता की खोज में यहाँ–वहाँ भागते–भटकते फिरने के बजाय इन भावमूर्तियों की ही प्रदक्षिणा करूँ । तो शुरू करता हूँ वाल्मीकि की रामायण से–––
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