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Stri Jeevan Ka Yougal Kshetra
औरतों की नाजुक स्थितियों व बदतर जीवन संदर्भों पर सोचती हुई कई बार उन विधवा, गृहस्थिन, पारिवारिक बोझ ढोनेवालियों पर चिंतित हो जाती हूँ जो विदर्भा जैसे इलाकों में आदमी की आत्महत्या के बाद, जीती हैं, जीवन को हराती हैं, अपने बच्चों सहित परिवार को संभालती हैं । वे खुदखुशी नहीं करती हैं, कम से कम उस दृष्टि से नहीं, उस दर में भी नहीं । जीती हैं, जीने देती हैं । काम और उम्मीदें बंद नहीं रखती हैं । उनकी जिजीविषा, आत्मधैर्य व जुझारूपन पर साहित्य व साहित्यिक दुनिया चुप क्यों हैं ? स्वामी ने जिन कारणों पर आत्माहुति की थी, वे कारण उन्हें खुदखुशी तक नहीं ले जाने हैं! यह राष्ट्र अजीब है, जिनमें जीने की हिम्मत है, उसे जीवन का जिम्मा सौंपा नहीं जाता । ‘कहने का साहस’ का अर्थ ही अब अपना खेमा या दल पर कहना बन जाता है । वही साहित्य का पक्षधर घोषित किया जाता है । समझौता अभी भी पशुओं का आपद्धर्म है । काश, पशु बन जाता तो शायद ही उसे अपनी जाति पर इतनी वितृष्णा आ जाती । काश, उसे अपनी जाति की करतूतों पर इतना ध्यान ही नहीं आ जाता । भीतर ही भीतर ऐसी घुटन शायद ही वह अनुभव करता । पशु को बदतर जीव माननेवाले कवि ने ही मादा को बदतर माना था, आज भी काफी लोग यह मानते हैं । हाँ किसी की दृष्टि अपनी भी हो सकती है, उसे बनने–सुधारने में औरों की नहीं, खुद की नीयत है । आपने देखा होगा, ईसा मसीह अपने घुटनों पर किसी के दरवाजे पर खटखटाते हैं, सालों से वे यह कर रहे हैं । आज भी ईसा उसी मुद्रा में हैं, खटखटाते रहते हैं । क्यों ? क्यों कि दरवाजा अंदर से बंद है, वह नहीं खुलेगा । जिसने उसे अंदर से बंद किया है, उसकी नीयत है तो ही दरवाजा खुल जाएगा । पर खटखटाना हमारा कार्य है, वही करती हूँ । खुल जाता है तो अच्छा, नहीं खुलता है तो फिर खटखटाती हूँ ।
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