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Stri Vimarsh Aur Napathye Raag
समकालीन नाट्य–जगत में एक ओर हिन्दी में मौलिक नाटकों की कमी का शोर है तो दूसरी ओर यह कहा जा रहा है कि इस विधा में महिलाएँ अपना हस्ताक्षर दर्ज नहीं करवा पा रही हैं । नाटककार के रूप में मीरा कांत एक ऐसा नाम है जो उपरोक्त दोनों स्थितियों को चुनौती देता है । मीरा कांत के अब तक लगभग गयारह सारगर्भित व सफल नाटक पुस्तकाकार रूप में आ चुके हैंं । इस परिदृश्य में मौलिक नाटकों की कमी की बात अपने आप खारिज हो जाती है और यह भी स्थापित हो जाता है कि महिला नाटककार अब नेपथ्य में नहीं मंच के मध्य हैं । मीरा कांत का सृजनशील मन वर्तमान समाज की बहसों में शामिल भी होता है और उन पर गहराई से विचार–विमर्श करके उसे सही रचनात्मक दिशा भी देता है । एक स्त्री होने के नाते स्त्रियों के प्रश्नों, स्थितियों, विसंगतियों, समाज व शासन तन्त्र का उनके प्रति व्यवहार–कुल मिलाकर समाज की नींव में बहुत गहरे तक बैठी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की वास्तविकता पर सदियों से छाए घटाटोप को हटाकर सच्चाई की पहचान करवाती हैं । पितृसत्ता द्वारा स्त्रियों के खिलाफ बनाए गए मूल्यों, वर्जनाओं, मापदंडों पर सवालिया निशान लगाती हैं जो स्त्री को हमेशा अस्तित्वहीन, अभिव्यक्तिहीन, अस्मिताविहीन एक सुन्दर हॉड–माँस के पुतले की छवि प्रदान करता है । मीरा कांत पितृसत्ता के वर्चस्व में जीने वाली स्त्री को अपनी दोयम दर्जे की स्थिति के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान करती हैं । उनका विरोध पुरुष से नहीं बल्कि समाज की मूल्य व्यवस्था के कारण उसकी जड़ हो चुकी मानसिकता से है जो स्त्री को कभी भी अपने समकक्ष नहीं देखना चाहती । मीरा कांत हाशिए पर पड़ी स्त्री को केन्द्र में लाना चाहती हैं । नेपथ्य से लाकर मंच पर स्थापित करना चाहती हैं ।
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