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Sukhia Mar Gaya Bhookh Se
सिनेमा से तो किसान गायब हो ही गया है, नाटक में भी यही हाल है । जिस तरह साहित्य का शहरीकरण हो रहा है, किसान लगातार हाशिये पर जा रहा है । कुछ अपवाद को छोड़ दे तो अभी भी इस ज्वंलत मुद्दे पर कोई उत्कृष्ट कविता, कहानी या नाटक नहीं लिखा गया है । यह जानने की कोशिश नहीं की जा रही है कि क्यों हर रोज किसान आत्महत्या कर रहे हैं, क्यों आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या दो लाख साठ हजार से भी अ/िाक हो गयी है ? शायद इस तरफ लोगांे का ध्यान नहीं गया है कि पिछले बीस वर्षों में जितनी बड़ी संख्या में किसानों ने आत्महत्या की है, वह भारत के इतिहास में ही नहीं, पूरे मानव समाज के इतिहास में अपूर्व है । लेकिन सवाल उठता है, इतना कुछ होने के बावजूद न देश की सरकार, न किसी प्रदेश की सरकार ने ही इसे शोक और शर्म के रूप में स्वीकार किया है । मेरा यह नाटक इस शोक को संघर्ष में तब्दील करने का एक छोटा–सा प्रयास है । हो सकता है कि यह नाटक किसानों के प्रतिरोध को कोई दिशा दे सके । उन्हें प्रेरित कर सके कि लाठी, गोली और आर्थिक तबाही से मरने के बजाए लड़कर मरना ज्यादा बेहतर है । क्योंकि लड़ने के अलावा किसानांे के पास कोई रास्ता भी नहीं है । - राजेश कुमार
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