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Tum Bhi To Purush Hi Ho Ishwar!
स्मिता वाजपेयी की कविताएँ परम्परा में प्रवाहित मूल्यों–संवेदनाओं पर वर्तमान की पथरीली पाटों के बीच गुजरती है । इनके यहाँ स्मृतियाँ है लेकिन वह मोह नहीं है । मिलान कुन्देरा के शब्दों में वह एक ऐसी कल्पना है जो बेहद जटिल होते वर्तमान को देखने की नई दृष्टि देती है । मौजूदा दौर में लिखी जी रही कविताओं से इनकी कविताएँ इस मायने में जुदा है कि इसमें विषय वैविध्य के साथ व्यापकता और गहराई भी है । गाँवों के धान की गमक को फिर से दोहराने की बजाय यह उसके विस्थापन को स्त्री की वेदना से जोड़ती हैं । ग्रामीण चैहद्दी का अतिक्रमण कर स्मिता देह और देश के दंश को दिखाती हैं । संवेदना की डोर पकड़कर वह पेशावर में मारे गए बच्चों से भी जुड़ती हंै । इनकी कविताओं में यथार्थ के तमाम रंग हैं जो हमारे मौजूदा समय और समाज का तल्ख सच है । इनके यहां प्रेम है, प्रतिरो/ा है, आदिवासी है, गाँव है, पुरुष है लेकिन सबसे ज्यादा स्त्री की पीड़ा, प्रतिरोध और उसके अलग–अलग कोणों से व्यक्त होता ‘प्रेम’ है । एक ऐसा प्रेम जिसके फ्रेम में मनुष्यता का रक्त रंजित शिशु है । परिवार से लेकर ईश्वर (परम) के प्रति इनमें नाराजगी है जिसे समाज में स्त्री के लिए जगह बनाने की जिद के रूप में देखा जाना चाहिए । स्मिता वाजपेयी का प्रथम कविता–संग्रह ‘तुम भी तो पुरुष हो ईश्वर’ इस बात को रेखांकित करता है कि स्त्री का मतलब महज मादा नहीं है । कवयित्री के रचनात्मक सफर के लिए उठे पहले कदम का अर्थ कमजोर या लघु होना कतई नहीं होता ।
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