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Uttar-Adhunikta Ke Daur Mein
हिन्दी में प्रेमचन्द अकेले हैं, जिनकी छवि ‘गाँव के लेखक’ के रूप में सिद्ध है । उनके साहित्य में किसान–जीवन का कितना प्रतिनिधित्व हुआ है, इस पर सम्यक् शोध होना अभी शेष है । फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के दोनों उपन्यास ‘मैला आँचल’ और ‘परती–परिकथा’ आंचलिक हो गए । बाबा नागार्जुन के उपन्यासों में गाँव तो है, मगर किसान ? जगदीशचन्द्र के यहाँ पंजाब के गाँव हैं । ‘रागदरबारी’ का गाँव औपन्यासिक है, ऐसे गाँव की कल्पना सिर्फ’ गाँव का मज़ाक उड़ाने के लिए की जा सकती है । हिन्दी के जिन अन्य उपन्यासों में ‘गाँव’ आया है, वह ग्रामीण–चित्रण के रास्ते निहित उद्देश्यों, अपनी कुंठाओं की अभिव्यक्ति और समय की माँग पूरी करने में सहयोग देनेवाला गाँव है । अगर गहराई से सोचकर देखें तो यह स्थिति बड़ी विचित्र है । हिन्दी के अधिकांश लेखक गाँव में पैदा हुए हैं, किन्तु ग्रामीण–जीवन पर आधारित रचना करनेवाले इने–गिने हैं । कृषि–व्यवस्था के चित्रण की दृष्टि से तो हिन्दी साहित्य की स्थिति और भी दयनीय है । -इसी पुस्तक से
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