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Vimarsh Ki Rahon Par
स्त्रियाँ प्राय: सृजनात्मक प्रकृति की हैं, कम से कम ऐसा मानना सृजन के साथ उनके संबन्धों की पुरोगामी व्याख्या के लिए सहायक है । पर अवसरों से वंचित परिसर निर्मित रखकर उसके हस्तक्षेपों पर अवरोध बनाए रखता है । औरतों के लिए सब आसान है या स्त्री के नाम या पहचान से ही सब छपे जाते हैं, ऐसे उलाहनापूर्ण बयानों की भी कमी नहीं है । बहरहाल इसके बदले, हर साल निकलनेवाली रचनाओं में तुलनात्मक दृष्टि से स्त्रियों की कितनी रचनाएँ हैं, इसका आंकड़ा क्यों नहीं लिया जाता है । हर साल कितनी स्त्रीरचनाएँ छापी जाती हैं? यह सवाल इसी ढ़ंग में, बरसों पहले विरजीनिया वूल्फ ने उठाया था । सामान्य व खास दृष्टि से स्त्री का जीवन सृजनात्मक है । एक तरफ उसका जीवन निर्माणात्मक है, तो दूसरी तरफ उसकी जैविकता उसे पुनर्निर्माणात्मक भी रखती है । पुराने जमाने में स्त्रियाँ यदि लिखती नहीं थीं तो उसके कारण थे । यदाकदा लिखनेवाली स्त्रियाँ लेखन को छुपाकर रखती थीं । परवर्ती समय में जब कोई लड़की लिखती है, वह अपने को पूर्ववर्ती बहनों की आवाज के साथ जोड़ देने का प्रयास करती है, अपने चारों तरफ मौन में रहनेवाली बहिनों की चेतना को विस्तृति देने का परिश्रम करती है । इस तरह स्त्री लेखन आवाज में आवाज मिलाने के साथ मौन को परिभाषित करने और परंपरा को उसमें शामिल रखने का भी सकारात्मक कार्य बन जाता है ।
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