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Bhartiya Natya Parampara Aur Aadhunikta
परम्परा, प्रयोग और शास्त्र का परस्पर सम्बन्ध क्या है और क्यों है ? और फिर सामयिक संदर्भों में उसकी प्रासंगिकता क्या है ? यह प्रश्न बड़ा स्वाभाविक और युक्तिसंगत है । विशेष रूप से 21वीं सदी के भारतीय युवा रंगकर्मियों के लिए तो यह प्रश्न सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । आज जब कि समस्त विश्व की वैज्ञानिक उपलब्धियों और मानवमन की गूढ़तम भावनाओं को लगभग समान रूप से व्याख्यायित किया जा रहा है, मनुष्य के अस्तित्व के विरुद्ध नई चुनौतियाँ सामने आ रही हैं, अन्तर्मन के सत्य की रक्षा के लिए नए सूत्र खोजे जा रहे हैं, तब दो या ढाई हज़ार वर्ष पूर्व लिखित एक ग्रंथ की प्रासंगिकता क्या है ? जब सारे संसार के देश साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, नवीनतम टेक्नोलॉजी, अनुसंधान आदि के सभी क्षेत्रों और विषयों में एक–दूसरे देशों से उन्मुक्त भाव से आदान–प्रदान कर रहे हैं, तब क्या अपनी प्राचीन परम्परा की दुहाई देकर या भारतीय संस्कृति के नाम पर हम अपनी कलात्मक प्रतिभा को पीछे तो नहीं ले जा रहे हैं ? यह प्रश्न हमारे जैसे विकासशील देश के लिए तो और अधिक प्रासंगिक हो गया है कि हम अपने समाज को अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता और बेमानी हो गई रूढ़ियों से कैसे मुक्त करें ? आज जब कि मनुष्य इस सदी में चाँद पर घर बसाने की युक्ति खोजने में संलग्न है, कहीं हम अपने समाज की उन्नति में बाधा तो नहीं बन जाएँगे! ये और इस तरह के अनेक प्रश्न यदि आज की पीढ़ी के युवा रंगकर्मियों के मन में उपजते हैं, तो यह उनकी वैचारिक परिपक्वता का लक्षण है । यह हमारी वैज्ञानिक उपलब्/िायों को आत्मसात् करके पूरे समाज को प्रगति, उन्नति और विकास की राह पर तेज़ी से लाने का संघर्षपूर्ण प्रयास समझा जाना चाहिए ।
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