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Chintan Ke Galiyaro Se

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2025
978-93-95226-67-7

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वर्तमान में जिस वैश्विक अर्थव्यवस्था को नियति मान लिया गया है, उसने हमारी समूची संवेदना और संपूर्ण संबंध तंत्र को झकझोर दिया है। हमारी संवेदना और संबंधों के बीच उपभोक्तामूलक संस्कृति आकर पसर गई है। वस्तुतः संस्कृति व्यक्ति और समाज की संवेदना के मँजते जाने की प्रक्रिया का दूसरा नाम है। उपभोक्तामूलक संस्कृति इससे न केवल विपरीत व्यवहार करती है बल्कि वह किसी भी संस्कृति के हासोन्मुख होने की पराकाष्ठा भी है। मानवीय संबंधों में जो सहज मधुरता होती है उससे उपभोक्तामूलक संस्कृति का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। यदि हम गहराई से विचार करें तो पाएँगे कि हम पर लद गई यह 'संस्कृति' अपनी प्रकृति में रागमूलक न होकर आसक्तिमूलक होती है। उसकी आसक्ति निचोड़ कर फेंक देने की प्रक्रिया है। ज़ाहिर है कि यह प्रक्रिया चीजों के प्रति अपने व्यवहार में उपभोग की सीमा तक आसक्तिमूलक और बाद में निर्मम बल्कि कहें कि हिंसक होती है।

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