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Gili Mitti Ka Ek Londa

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2016
978-93-85450-51-8

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हमारे चारों ओर जिस प्रकार कंक्रीट के जंगल पसरते जा रहे हैं उसी प्रकार मानवीय सम्बन्धों की तरलता भी सूखकर पथराती जा रही है । इस ‘ग्लोबल’ दौर में जीवन की कठोर वास्तविकताओं के जलते रेगिस्तान पर दिशाहीन होकर चलते जाना हमारी नियति बन गयी है । थके और दम तोड़ते हुए मानवीय सम्बन्धों के साथ पथराते अन्तर्मन को लिये हम जीवन जी नहीं रहे, उसे ढो रहे हैं । इसके बावजूद हमारी इयत्ता के किसी कोने में मानवीय संवेदनाओं की गीली मिट्टी का एक लौंदा हमारे भीतर–––कहीं बहुत भीतर मौजूद है । शायद यही हमारे मनुष्य होने की आखिरी पहचान, या कहें आखिरी संभावना है । परिवेशगत विडम्बनाओं की कोख से जन्मे सम्बन्धों के परायेपन की चोट खाकर इस गीली मिट्टी के लौंदे का एक हिस्सा बार–बार /ासक कर जीवन के जलते रेगिस्तान पर गिरकर छितरा जाता है किन्तु इसके बावजूद गीली मिट्टी के लौंदे का बचा हुआ अंश अपने वजूद को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगा रहता है । शायद उसके संघर्ष की यही निरन्तरता मनुष्य की जिजीविषा का एकमाात्र किन्तु अक्षय स्रोत है । ये कविताएँ पथराते हुए रिश्तों और जीवन के जलते रेगिस्तान के समानांतर गीली मिट्टी के एक लौंदे को रखकर देखने की एक छोटी की एक छोटी किन्तु उम्मीद भरी कोशिश है ।

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