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Hindi Navjagarn : Kuch Jane-Anjane Sandarbh
सबसे पहले हमें यह सुनिश्चित कर लेना होगा कि भारतीय नवजागरण स्वयं में इतना बहुस्तरीय और बहुआयामी है कि हम चाह कर भी उसका कोई सरलीकृत बिम्ब निर्मित नहीं कर सकते । सच पूछिए तो भारतीय नवजागरण के भीतर न कोई निरन्तरता है और न कोई संश्लिष्टता । उसके समूचे स्वरूप में ऐसे अनेक अन्तर्विरोध हैं जिनको समझे बिना हम उसके विषय में कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं बना सकते । “हमारे समक्ष उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध का नवजागरण कोई एक अखण्ड संश्लिष्ट छवि को लेकर नहीं उभरता है । समान चिन्ताओं के तहत भी उससे जुड़े विचारकों तथा मनीषियों की सोच की अपनी दिशाएँ एक नहीं हैं देश–दशा सबको समान रूप से द्रवित करती है, पराधीनता का गहरा अहसास सभी को होता है, और भारत की आर्थिक लूट तथा उस पर पड़ रहे बाहरी संस्कृति के अवांछनीय दबावों को भी सभी समान रूप से महसूस करते और क्षुब्ध होते हैं । अपनी राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति सभी चिन्ताशील हैं तथा उपनिवेशवादियों के चालाक इरादों से भी सभी समान रूप से वाकिफ हैं । उस हीन भाव से भी वे देश की जनता को उबारना चाहते हैं जो सदियों की गुलामी भोगने के परिणामस्वरूप उनमें व्याप्त हो गया था । अपने सांस्कृतिक दाय के प्रति भी वे समान रूप से प्रणत हैं ।” इतनी समानताओं के होते हुए भी भारतीय नवजागरण की बहुस्तरीयता, बहुआयामिता और कालगत साहित्य का अभाव और सबसे बढ़कर उसमें विद्यमान वैचारिक अन्तर्विरोध हमारे समक्ष निरन्तरता में चुनौती के रूप में सामने आते रहते हैं ।
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