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Hone Aur Na Hone Ka Sach

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2017
978-93-85450-56-3

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मनुष्य अपने आप में अधूरा और अपर्याप्त रहने के लिए विवश है । यह विवशता उसकी सीमा भी है और संभावना भी । उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताएं प्रकृति और पर्यावरण के सामने छोटी पड़ती हैं और इन दोनों के बीच एक प्रकार से सतत द्वन्द्वचलता रहता है । मनुष्य जाति के विकास का इतिहास एक अर्थ में इसी द्वन्द्वका इतिहास है । मनुष्य बौद्धिक दृष्टि से सर्वाधिक विकसित प्राणी होने के कारण अस्तित्व की इस लड़ाई में अपनी विवशता को शक्ति के रूप में बदलने के लिए हमेशा से जुटा रहा है और आज भी जुटा हुआ है, पर उसके जीवन में ऐसे क्षण आते ही रहते हैं, जब वह अपने आपको असहाय, विवश और असहज पाता है । ऐसी स्थिति में उसे अपने–आप से बाहर निकलकर सहारा ढूंढ़ना पड़ता है और भरोसे का, चाहे वह छलावा ही क्यों न हो, ताना–बाना बुनना ही पड़ता है । इसी प्रक्रिया में विश्वासों, अंधविश्वासों और मिथकों आदि का जन्म होता है । ये सभी अस्तित्व में आ जाने के बाद एक स्वतंत्र या निरपेक्ष आकार ले लेते हैं या यों कहें कि उनके अस्तित्व के लिए उनके मौलिक संदर्भों की जरूरत नहीं रह जाती और नया जीवन शुरू कर देते हैं । ऐसा होना सहज जीवन के लिए जरूरी भी है, क्योंकि मनुष्य जिस विश्व में रहता है, उसकी न तो पूरी जानकारी हो सकी है, न ही वह जटिल जानकारी सामान्य आदमी की बुद्धि में समा ही सकती है । - इसी पुस्तक से

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