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Kavita Ke Prashan Aur Pratiman
हिंदी साहित्य के इतिहास में उन कविताओं को अधिक चर्चा और कालजयिता प्राप्त हुई है, जिन कविताओं ने तत्कालीन राजनीतिक और धार्मिक सत्ता की कार्यशैली और प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े किये । कई बार कविता की आवाज़ भले नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ साबित हो, लेकिन सार्थक और प्रासंगिक कविता ने अपनी भूमि और भूमिका से कभी समझौता नहीं किया, न अपने प्रतिपक्षी तेवर को किसी लाभ–लोभ के कारण मद्धिम पड़ने दिया । हमारे समय की कविताओं ने इस दुरभिसंधि की शिनाख़्त बारीकी से की, जिसका उचित और धारदार विश्लेषण सुविख्यात युवा आलोचक पंकज पराशर ने इस पुस्तक ‘कविता के प्रश्न और प्रतिमान’ में किया है । अपने समय के यथार्थ से टकराकर ही समकालीन साहित्य की वस्तुपरक समालोचना की जा सकती है । इस दृष्टि से पंकज ने देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लगातार अपने मौलिक आलोचनात्मक आलेखों से पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है,
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