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Mother India Ka Jawab
यह सामान्य धारणा है कि तीसरी दुनिया में स्त्रीवादी आन्दोलन प्रायः हमेशा ही उसी ऐतिहासिक जमीन और ऐतिहासिक पल से उत्पन्न होता है जिस से राष्ट्रवाद। लेकिन शायद यह भी सच है कि कुछ दूर की सामानांतर यात्रा के बाद दोनों के रास्ते परस्पर अलग होने को बाध्य हो जाते हैं। स्त्री प्रश्न पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच विचारधारात्मक संघर्ष वर्षों से चला आ रहा था जिसमें राष्ट्रवाद और स्त्रीवाद के अंतर्विरोधों की अनदेखी के पीछे यह तर्क प्रस्तुत किया जाता था कि, “भारत तब तक स्वतन्त्र नहीं हो सकता जब तक इसकी स्त्रियाँ स्वतन्त्र न हो जाएं और स्त्रियाँ तब तक स्वतन्त्र नहीं हो सकती जब तक भारत स्वतन्त्र न हो जाए। ऐसे में कैथरीन मेयो (1867-1940) की पुस्तक मदर इंडिया (१६२७) के प्रकाश में आने ने न सिर्फ उग्र राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया को चिंगारी दी बल्कि राष्ट्रवाद के आईने में स्त्रीवाद को अपनी इयत्ता पहचानने, अस्मिता को पारिभाषित करने का एक माकूल अवसर भी प्रदान किया। मदर इंडिया में भारत की दुर्दशा का मुख्य कारण बहुसंख्यक स्त्रियों की दुर्दशा को मानते हुए हिन्दू सभ्यता की आतंरिक संरचना, विशेषकर समाज के काम प्रधान संगठन को उत्तरदायी ठहराया गया था। जैसा कि मनोरंजन झा के अध्ययन से स्पष्ट है, अमेरिकी पत्रकार कैथरीन मेयो ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी हित को ध्यान में रखकर निश्चय ही प्रोपेगेंडा की नीयत से 'मदर इंडिया' लिखी। लेकिन स्त्रीवाद के सामने मेयो की किताब ने दुविधापूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी थी, जहां एक और इस पुस्तक की आलोचना उसे राष्ट्रवादियों के पक्ष में जाकर स्त्री की वास्तविक स्थिति को भूलकर तथाकथित गौरवपूर्ण भारतीय स्त्री का महिमामंडन करवा सकती थी. वहीं पुस्तक में चित्रित स्त्रियों की कारुणिक दशा से सहानुभूति व्यक्त करने का अर्थ होता ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के पक्ष को अंततः मजबूत करना। अगर उस दौर की प्रतिक्रियाओं को देखें तो कार्नेलिया सोराबजी (1866-1954) जैसे एक-आध अपवादों को छोड़कर अधिकांश स्त्रीवाद के समर्थकों ने विरल परिपक्वता का परिचय देते हुए मदर इंडिया की तीखी आलोचना की, लेकिन साथ ही साथ भारतीय स्त्रियों की दयनीय स्थिति में सुधार की आवश्यकता पर भी अत्यधिक बल दिया। 'मदर इंडिया' की प्रतिक्रिया और आलोचना में लगभग पचास से अधिक पुस्तक पुस्तिकाएं प्रकाशित हुई थीं-हिन्दी, उर्दू, मराठी, बंगला, तमिल, तेलुगू समेत कई यूरोपीय भाषाओं में भी प्रकाशित हुई थीं...। लेकिन स्त्री-रचनाकारों द्वारा जो प्रतिक्रियाएं हिंदी में आयीं उनमें चन्द्रावती लखनपाल का नाम प्रमुख है। चन्द्रावती लखनपाल (1904-1969) ने मदर इंडिया के तुरंत बाद 1927 के दिसंबर में मदर इंडिया का जवाब लिखा और अगले साल 1928 में उमा नेहरू (1884-1963) की पुस्तक मदर इंडिया का सचित्र हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुई, जिसमें "उमा नेहरू लिखित भूमिका तथा पश्चिमीय साम्राज्यवाद के विषय में मिस मेयो से दो दो ""बातें" शामिल थीं। हिन्दी क्षेत्र में स्त्री-चेतना के विस्तार का यह प्रमाण तो था ही, साथ ही साथ राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद के तर्क से ऊपर उठकर. स्त्रीवाद किस प्रकार आत्मालोचन के लिए प्रस्तुत हो सकता है, यह इसका सुन्दर दृष्टान्त भी है। - भूमिका से
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